(1) न्याय दर्शन
प्रवर्तक ऋषि
न्याय दर्शन भारत के छः वैदिक दर्शनों में एक दर्शन है। जिनका न्यायसूत्र इस
दर्शन का सबसे प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके प्रवर्तक ऋषि अक्षपाद गौतम हैं
अर्थ और उद्देश्य
जिन साधनों से हमें ज्ञेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हीं साधनों को ‘न्याय’ की संज्ञा दी गई है। देवराज ने 'न्याय' को परिभाषित करते हुए कहा है- नीयते
विवक्षितार्थः अनेन इति न्यायः (जिस साधन के
द्वारा हम अपने विवक्षित (ज्ञेय) तत्त्व के पास पहुँच जाते हैं, उसे जान पाते हैं, वही साधन न्याय है।)
दूसरे शब्दों में, जिसकी सहायता से किसी
सिद्धान्त पर पहुँचा जा सके, उसे
न्याय कहते हैं। प्रमाणों के आधार पर किसी निर्नय पर पहुँचना ही न्याय है। यह मुख्य रूप से तर्कशास्त्र और ज्ञानमीमांसा है। इसे तर्कशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, हेतुविद्या, वादविद्या तथा अन्वीक्षिकी भी कहा जाता है।
वात्स्यायन ने प्रमाणैर्थपरीक्षणं
न्यायः (प्रमाणों द्वारा अर्थ (सिद्धान्त) का
परीक्षण ही न्याय है।) इस दृष्टि से जब कोई मनुष्य किसी विषय में कोई सिद्धान्त
स्थिर करता है तो वहाँ न्याय की सहायता अपेक्षित होती है। इसलिये न्याय-दर्शन
विचारशील मानव समाज की मौलिक आवश्यकता और उद्भावना है। उसके बिना न मनुष्य अपने
विचारों एवं सिद्धान्तों को परिष्कृत एवं सुस्थिर कर सकता है न प्रतिपक्षी के
सैद्धान्तिक आघातों से अपने सिद्धान्त की रक्षा ही कर सकता है।
न्यायशास्त्र उच्चकोटि के संस्कृत साहित्य (और विशेषकर भारतीय दर्शन) का प्रवेशद्वार है। उसके
प्रारम्भिक परिज्ञान के बिना किसी ऊँचे संस्कृत साहित्य को समझ पाना कठिन है,
चाहे वह व्याकरण, काव्य, अलङ्कार, आयुर्वेद, धर्मग्रन्थ
हो या दर्शनग्रन्थ। दर्शन साहित्य में तो उसके बिना एक पग भी चलना असम्भव है।
न्यायशास्त्र वस्तुतः बुद्धि को सुपरिष्कृत, तीव्र और विशद
बनाने वाला शास्त्र है। परन्तु न्यायशास्त्र जितना आवश्यक और उपयोगी है उतना ही
कठिन भी, विशेषतः नव्यन्याय तो
मानो दुर्बोधता को एकत्र करके ही बना है।
वैशेषिक दर्शन की ही भांति न्यायदर्शन में भी
पदार्थों के तत्व ज्ञान से निःश्रेयस् की सिद्धि बतायी गयी है। न्यायदर्शन में १६
पदार्थ माने गये हैं-
१. प्रमाण – ये मुख्य चार हैं –
1. प्रत्यक्ष
2. अनुमान
3. उपमान
4. शब्द ।
२. प्रमेय – ये बारह हैं –
1. आत्मा
2. शरीर
3. इन्द्रियाँ
4. अर्थ
5. बुद्धि / ज्ञान / उपलब्धि
6. मन
7. प्रवृत्ति
8. दोष
9. प्रेतभाव
10. फल
11. दुःख
12. उपवर्ग ।
३. संशय
४. प्रयोजन
५. दृष्टान्त
६. सिद्धान्त –
चार प्रकार के है :
1. सर्वतन्त्र सिद्धान्त
2. प्रतितन्त्र सिद्धान्त
3.अधिकरण सिद्धान्त
4.अभुपगम सिद्धान्त ।
७. अवयव
८. तर्क
९. निर्णय
१० वाद
११ जल्प
१२ वितण्डता
१३. हेत्वाभास –
ये पांच प्रकार के होते हैं :
1. सव्यभिचार
2. विरुद्ध
3. प्रकरणसम
4. साध्यसम
5. कालातीत
१४. छल –
1. वाक् छल
2. सामान्य छल
3. उपचार छल ।
१५. जाति
१६. निग्रहस्थान
न्याय दर्शन महिर्ष अक्षपाद गौतम द्वारा प्रणीत न्याय
दर्शन एक आस्तिक दर्शन है जिसमें ईश्वर कर्म-फल प्रदाता है। इस दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य
विषय प्रमाण है। न्याय शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है परन्तु दार्शनिक साहित्य
में न्याय वह साधन है जिसकी सहायता से किसी प्रतिपाद्य विषय की सिद्ध या किसी सिद्धान्त
का निराकरण होता है- नीयते प्राप्यते विविक्षितार्थ सिद्धिरनेन इति न्याय:।।
अत: न्यायदर्शन में अन्वेषण अर्थात् जाँच-पड़ताल के उपायों
का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ में पांच अध्याय है तथा प्रत्येक अध्याय में दो दो
आह्रिक हैं। कुल सूत्रों की संख्या ५३९ हैं। न्यायदर्शन में अन्वेषण अर्थात् जाँच-पडद्यताल
के उपायों का वर्णन किया गया है कहा है कि सत्य की खोज के लिए सोलह तत्व है। उन तत्वों
के द्वारा किसी भी पदार्थ की सत्यता (वास्तविकता) का पता किया जा सकता है। ये सोलह
तत्व है- (१) प्रमाण, (२) प्रमेय, (३) संशय, (४) प्रयोजन, (५) दृष्टान्त, (६) सिद्धान्त, (७)अवयव, (८) तर्क (९) निर्णय, (१०) वाद, (११) जल्प, (१२) वितण्डा, (१३) हेत्वाभास, (१४) छल, (१५) जाति और
(१६) निग्रहस्थान
इन सबका वर्णन न्याय दर्शन में है और इस प्रकार इस दर्शन
शास्त्रको तर्क करने का व्याकरण कह सकते हैं। वेदार्थ जानने में तर्क का विशेष महत्व
है। अत: यहदर्शन शास्त्र वेदार्थ करने में सहायक है। दर्शनशास्त्र में कहा है- तत्त्वज्ञानान्नि:
श्रेयसाधिगम:।। अर्थात्- इन सोलह तत्वों के ज्ञान से निश्रेयस् की प्राप्ति होती है।
(सत्य की खोज में सफलता प्राप्ति होती है)।
न्याय दर्शन के चार विभाग-
१. सामान्य ज्ञान की समस्या का
निराकरण
२. जगत की समस्या का निराकरण
३. जीवात्मा की मुक्ति
४. परमात्मा का ज्ञान
न्याय दर्शन में अघ्यात्मवाद की अपेक्षा तर्क एवं ज्ञान
का आधिक्य है इसमें तर्क शास्त्र का प्रवेश इसलिए कराया गया क्योंकि स्पष्ट विचार एवं
तर्क-संगत प्रमाण परमानन्द की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।
न्याय दर्शन में
१. सामान्य ज्ञान
२. संसार की क्लिष्टता
३. जीवात्मा की मुक्ति एवं
४. परमात्मा का ज्ञान-
इन चारों गंभीर उद्देश्यों को
लक्ष्य बनाकर प्रमाण आदि १६ पदार्थ उनके तार्किक समाधान के माने गये है किन्तु इन सबमे
प्रमाण ही मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। किसी विषय में यथार्थ ज्ञान पर पहुंचने और अपने
या दूसरे के अयथार्थ ज्ञान की त्रुटि ज्ञात करना ही इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य है।
दु:ख का अत्यन्तिक नाश ही मोक्ष है। न्याय दर्शन की अन्तिम दीक्षा यही है कि केवल ईश्वरीयता
ही वांछित है, ज्ञातव्य है और
प्राप्य है- यह संसार नहीं। पदार्थ और मोक्ष मुक्ति के लिए इन समस्याओं का समाधान आवश्यक
है जो १६ पदार्थों के तत्वज्ञान से होता है। इनमें प्रमाण और प्रमेय भी है। तत्वज्ञान
से मिथ्या-ज्ञान का नाश होता है। राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके यही मोक्ष दिलाता है।
सोलह पदार्थों का तत्व-ज्ञान निम्नलिखित क्रम से मोक्ष का हेतु बनाता है।
दु:ख-जन्म प्रवृति- दोष मिथ्यामानानाम
उत्तरोत्तरापाये तदनंन्तरा पायायदपवर्ग:।।
अर्थात- दु:ख, जन्म, प्रवृति (धर्म-अधर्म), दोष (राग, द्वेष) और मिथ्या ज्ञान-इनमें से उत्तरोतर
नाश द्वारा इसके पूर्व का नाश होने से अपवर्ग अर्थात् मोक्ष होता है। इनमें से प्रमेय
के तत्व-ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है और प्रमाण आदि पदार्थ उस ज्ञान के साधन
है। युक्ति तर्क है जो प्रमाणों की सहायता करता है।पक्ष-प्रतिपक्ष के द्वारा जो अर्थ
का निश्चय है, वही निर्णय है।
दूसरे अभिप्राय से कहे शब्दों का कुछ और ही अभिप्राय कल्पना करके दूषण देना छल है।
आत्मा का अस्तित्व आत्मा, शरीर और इन्द्रियों
में केवल आत्मा ही भोगने वाला है। इच्छा,द्वेष, प्रयत्न, सुख-दु:ख और ज्ञान
उसके चिह्म है जिनसे वह शरीर से अलग जाना पड़ता है। उसके भोगने का घर शरीर है। भोगने
के साधन इन्द्रिय है। भोगने योग्य विषय (रूप,रस,गंध, शब्द और स्पर्श)
ये अर्थ है उस भोग का अनुभव बुध्दि है और अनुभव कराने वाला अंत:करण मन है। सुख-दु:ख
का कराना फल है और अत्यान्तिक रूप से उससे छूटना ही मोक्ष है.
न्यायशास्त्र के कुछ मुख्य सिद्धान्त
प्रमाण
(प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द)
भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे
कहते हैं जो सत्य ज्ञान करने में सहायता करे, अर्थात् वह साधन
या प्रक्रिया जिससे किसी दूसरी बात का यथार्थ ज्ञान हो। प्रमाण न्याय का मुख्य विषय
है। 'प्रमा' नाम है यथार्थ ज्ञान का। यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ
ज्ञान हो, उसे प्रमाण कहते
हैं। न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द - ये चार प्रमाण माने गए हैं। इसमें ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव
के प्रमाणत्व का खंडन किया गया है।
1. प्रत्यक्ष : प्रत्यक्ष प्रमाण
के दो भेद हैं- बाह्य और आभ्यंतर।
बाह्य : घ्राण, रसना, चक्षु त्वक् और
श्रोत्र, इन इंद्रियों
को, शरीर के बाहर ऊपरी भाग में रहने
के कारण तथा बाहरी विषयों का ग्राहक होने के कारण "बाह्य प्रत्यक्ष प्रमाण"
और
आभ्यंतर: मन को शरीर के
भीतर आत्मा के साथ रहने तथा भीतरी पदार्थ आत्मा एवं आत्मीय गुणों का ग्रहाक होने के
कारण "आंतर प्रत्यक्ष प्रमाण" कहा जाता है। प्रत्यक्ष शब्द से इंद्रिय, तज्जन्य ज्ञान और उनके विषय इन तीनों का बोध होता है। ये तीन प्रकार के बोध निम्नलिखित
व्युत्पत्तियों से क्रमश: उत्पन्न होते हैं :
1. "(अर्थ) प्रति गतम् अक्षम् = इंद्रियम्" - (अर्थसन्निकृष्ट
इंद्रिय)
2. "(अर्थ) प्रति गतम् अक्षम् यस्मै" (इंद्रियजन्य ज्ञान)
3. "यं प्रति गतम् अक्षम्" (इंद्रियसन्निकृष्ट विषय)
इंद्रिय रूप प्रत्यक्ष प्रमाण
की संख्या छ: होने से तज्जन्य ज्ञानों की संख्या छ: होती है और उन्हें इद्रियद्वारक
नामों से व्यवहृत किया जाता है, जैसे- घ्राणज, रासन, चाक्षुष, त्वाच, श्रावण और मानस इन प्रत्यक्ष
ज्ञानों में प्रत्येक के दो भेद होते हैं- निर्विकल्पक और सविकल्पक।
निर्विकल्पक- इस प्रत्यक्ष
में वस्तु के स्वरूप मात्र का भान होता है, उसकी विषयभूत, में परस्पर संबंध का मान नहीं होता; अतएव इस प्रत्यक्ष
की विषयता विशेषणता विशेष्यता और संसर्गता से विलक्षण होती है और वह विलक्षण विषयता
ही इस प्रत्यक्ष का लक्षण है। यह अतीन्द्रिय होता है अर्थात् इसका प्रत्यक्ष नहीं होता।
"सविकल्पक प्रत्यक्ष" के कारण रूप में इसका अनुमान होता है।
सविकल्पक - यह प्रत्यक्ष
विशिष्टग्राही होता है। इसकी विषयता विशेषणता-प्रकारता, विशेष्यता और संसर्गता के भेद से तीन प्रकार की होती है। यह निर्विकल्पक"
से उत्पन्न होता है और मन से इसका प्रत्यक्ष वेदन होता है। इसके प्रत्यक्ष को
"अनुव्यवसाय" शब्द से व्यवहृत किया जाता है। प्रत्येक जन्य सविकल्पक प्रत्यक्ष
के दो भेद होते हैं- लौकिक और अलौकिक।
लौकिक - प्रत्यक्ष वर्तमान और
समीपस्थ वस्तु का ही ग्राहक होता है। उसका जन्म वस्तु के साथ इंद्रिय के लौकिक सन्निकर्ष
से होता है; वे सन्निकर्ष
छ: हैं - संयोग, संयुक्त समवाय, संयुक्तसमवेत समवाय, समवाय, समवेत समवाय और विशेषणता। इनमें संयोग से द्रव्य का, संयुक्तसमवाय से द्रव्य के गुण, कर्म और सामान्य
का, संयुक्तसमवेत समवाय से गुण और
कर्म के सामान्य का, समवाय से शब्द
का, समवेत समवाय से शब्द के सामान्य
का और विशेषणता से समवाय तथा अभाव का प्रत्यक्ष होता है।
अलौकिक - अलौकिक प्रत्यक्ष दूरस्थ
और अविद्यमान पदार्थ को भी ग्रहण करता है। उसका जन्म विषय के साथ इंद्रिय के अलौकिक
सन्निकर्ष से संपन्न होता है। अलौकिक सन्निकर्ष तीन हैं- सामान्यलक्षण, ज्ञानलक्षण और योगज।
सामान्यलक्षण - ज्ञातसामान्य
या सामान्यज्ञान को सामान्यलक्षणसन्निकर्ष कहा जाता है। इससे समीपस्थ, दूरस्थ, विद्यमान और अविद्यमान
सभी प्रकार के समस्त सामान्याश्रयों का प्रत्यक्ष होता है। यह प्रत्यक्ष उसी दशा में
होता है, जब सामान्य के
किसी आश्रय के लौकिक प्रत्यक्ष की सामग्री सन्निहित रहती है। इसी सन्निकर्ष की महिमा
से किसी एक मात्र धूम में किसी एक मात्र वह्रि के साहचर्य ज्ञान से ही सब धूमों में
सब वह्रि की व्याप्ति का ज्ञान हो जाता है तथा सन्निकृष्ट धूम में वह्रि की व्याप्ति
का निश्चय रहते हुए भी असन्निकृष्ट धूम में वह्रिव्यभिचार का संदेह होता है।
ज्ञानलक्षण - तत्तद् विषय का
ज्ञान ही तत्तद् विषय के साथ इंद्रिय का "ज्ञानलक्षण" सन्निकर्ष कहा जाता
है। इस सन्निकर्ष से ज्ञान के विषय का ही प्रत्यक्ष होता है, उसके आश्रय का नहीं। इसी के प्रभाव से एक पदार्थ में अन्य पदार्थ के धर्म का भ्रमात्मक
प्रत्यक्ष होता है।
योगज - योगाभ्यास से मनुष्य की
आत्मा में एक विशिष्ट धर्म का उदय होता है। इस धर्म को ही विषय के साथ इंद्रिय का योगज
सन्निकर्ष कहा जाता है। इससे इंद्रियों का सामथ्र्य बढ़ जाता है, जिसके फलस्वरूप इंद्रियां दूरस्थ और अविद्यमान पदार्थ का भी प्रत्यक्ष करने लगती
हैं। उसके प्रभाव से ही योगी को सर्वेज्ञता की प्राप्ति होती है।
नित्य प्रत्यक्ष - इस सन्दर्भ
में यह बात ध्यान देने योग्य है कि उक्त जन्य प्रत्यक्षों से अतिरिक्त एक नित्य प्रत्यक्ष
भी है, जो अजन्मा एवं
अविनाशी है। वह प्रत्यक्ष समग्र संसार को विषय करता है और उपादानप्रत्यक्ष के रूप में
सभी कार्यों का कारण होता है। वह एकमात्र ईश्वर में ही समवेत रहता है।
2.
अनुमान
अनुमान प्रमाण से उन सभी पदार्थों
का ज्ञान किया जाता है जो इंद्रिय द्वारा ज्ञात होने की योग्यता रखते हुए भी दूरस्थ
या अविद्यमान होने के कारण इंद्रिय से ज्ञात नहीं हेते अथवा जिसमें इंद्रिय से ज्ञात
होने की योग्यता ही नहीं होती। इसके दो भेद होते हैं - स्वार्थानुमान और परार्थानुमान।
जिस अनुमान से अपने संशय का निराकरण या अपने आप को साध्य का निश्चय होता है, उसे "स्वार्थानुमान" तथा जिस अनुमान से अन्य व्यक्ति - जिज्ञासु, प्रतिवादी या मध्यस्थ - के संशय का निराकरण या साध्य का निश्चय होता है, उसे "परार्थानुमान" कहा जाता है। "स्वार्थानुमान" की निष्पत्ति
अन्य पुरुष के वचन की अपेक्षा न कर अपने प्रयास से हेतु में साध्य की व्याप्ति का ज्ञान
अर्जित कर की जाती है और "परार्थानुमान" की निष्पत्ति अन्य पुरुष के वचन
से अर्थात् पंचावयवात्मक न्याय के प्रयोग से व्याप्तिज्ञान प्राप्त कर की जाती है।
इसीलिए गंगेशोपाध्याय ने तत्वचिंतामणि (अनुमान खंड) के अवयवप्रकरण में स्पष्ट कहा है-
तच्चानुमानं परार्थं न्यायसाध्यमिति
न्यायस्तदवयवाश्च प्रतिज्ञा हेतूदाहरणोपनय निगमनानि निरूप्यन्ते।
न्याय - इसकी परिभाषा आरंभ में
बताई गई है। न्यायशास्त्र में इसके पाँच अवयव माने गए हैं - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और गिमन। जिस वाक्य से पक्ष के साथ साध्य के संबंध का ज्ञान हो उसे
"प्रतिज्ञा", जिस वाक्य से
हेतु में साध्य की ज्ञापकता अवगत हो उसे "हेतु", जिस वाक्य से हेतु में साध्य की व्याप्ति बताई जाए उसे "उदाहरण", जिस वाक्य से पक्ष में साध्यवाक्य हेतु का संबंध बोधित हो उसे "उपनय"
और जिस वाक्य के हेतु का अबाधितत्व एवं असत्प्रतिपक्षितत्व बताते हुए हेतु के सामर्थ्य
से पक्ष में साध्य के संबंध का उपसंहार किया जाए उसे "निगमन" कहा जाता है।
उनके उदाहरण क्रम में इस प्रकार हैं :
1. "पर्वतो वह्रिमान्"
- प्रतिज्ञा
2. "धूमात्"
- हेतु
3. "यो यो धूमवान्
स स वह्रिमानं" - उदाहरण
4. तथा चायम् - उपनय'
5. तस्माद् वह्रिमान्
- निगमन
इसी पंचावयवात्मक वाक्य को वात्स्यायन
ने "परम न्याय" कहा है।
अनुमान का स्वरूप
हेतु, व्याप्तिज्ञान या व्याप्ति ज्ञानसहकृत मन को अनुमान कह जाता है। इनमें तीसरा पक्ष
बहुत ही कम प्रसिद्ध है पर प्रथम दो पक्ष अधिक प्रसिद्ध हैं। उदयनाचार्य तथा उनके अनुयायी
"हेतु" को और गंगेशोपाध्याय तथा उनके अनुयायी व्याप्तिज्ञान को अनुमान कहते
हैं।
अनुमान के भेद
न्याय दर्शन में अनुमान के तीन
भेद बताए गए हैं- पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट।
वात्स्यायन ने इन अनुमानों की निम्नलिखित रूप से दो प्रकार की व्याख्याएँ की हैं :
1. पूर्ववत् = कारण
से कार्य अनुमान जैसे- मेध से भावी वृष्टि का।
2. शेषवत् = कार्य
से कारण का अनुमान जैसे- प्रवाह की पूर्णता, द्रुतगामिता, तृणादियुक्तता से भूत वृष्टि का।
3. सामन्यतोदृष्ट
= कार्य-कारणभाव का नियमन होने पर भी जैसे- "एक स्थान में देखे गए पदार्थ की अन्य
स्थान में सामान्यता एक सहचरित पदार्थ से अन्य उपलब्धि उस पदार्थ के अन्य स्थान में
जाने से सहचरित पदार्थ का अनुमान ही संभव है"- इस सहचार नियम के आधार पर प्रात:
पूर्व में देखे गए सूर्य को सायंकाल पश्चिम में देखकर सूर्य के पूर्व से पश्चिम जाने
का अनुमान होता है।
1. पूर्ववत् = एक आश्रय में एक साथ प्रत्यक्ष दो पदार्थों में जैसे- पाकशाला में एक
प्रत्यक्ष देखे गए धूम और एक से दूसरे का पूर्व की भाँति साथ होने का अनुमान वह्रि
में धूम से पर्वत वह्नि का अनुमान
2. शेषवत् = प्रसक्त का प्रतिषेध और अन्यत्र प्रसक्ति के अभाव से जैसे- भावात्मक होने
के कारण द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य शेष बचनेवाले
पदार्थ का अनुमान। विशेष और समवाय में शब्द के अंतर्भाव की प्रसक्ति होनेपर सत्ता जाति
का आश्रय होने से सामान्य, (2) विशेष और समवाय
में एक द्रव्यमात्र में समवेत होने से द्रव्य में और शब्दांतर का कारण होने से कर्म
में अंतर्भाव का निषेध तथा अभाव में भावात्मक शब्द के अंतर्भाव की अप्रसक्ति से शेष
बचने वाले गुण में शब्द के अंतर्भाव का अनुमान।
3. सामान्यतोदृष्ट = जिन दो पदार्थों में व्याप्यव्यापक भाव संबंध जैसे- इच्छा आदि
गुण और आत्मा का परस्पर संबंध प्रत्यक्ष विदित न हो, किंतु प्रत्यक्ष विदित संबंध जब प्रत्यक्षविदित नहीं है, किंतु सामान्य रूप से वाले पदार्थों का सामान्य सादृश्य हो, उनमें गुण और द्रव्य का संबंध प्रत्यक्षविदित है, इच्छा एक दूसरे का अनुमान आदि में गुण का एवं आत्मा में द्रव्यत्व रूप से अन्य
द्रव्य का सादृश्य होने के कारण इच्छा आदि गुणों से उनके आश्रय रूप में आत्मस्वरूप
द्रव्य का अनुमान।
उक्त तीनों अनुमानों में प्रत्येक
के तीन भेद माने जाते हैं- "केवलान्वयी", "केवलव्यतिरेकी" और अन्वयव्यतिरेकी। इन भेदों का आधार रघुनाथ शिरोमणि ने साध्य
को, उदयानाचार्य ने व्याप्तिग्राहक
सहचार को और गंगेशोपाध्याय ने व्याप्ति को माना है।
रघुनाथ का तात्पर्य यह है कि
जिस साध्य का विपक्ष नहीं होता उस साध्य का अनुमान "केवलान्वयी" अनुमान कहा
जाता है, जैसे वाच्यत्व, ज्ञेयत्व आदि सार्वत्रिक धर्मों का अनुमान; एवं जिस साध्य का सपक्ष नहीं होता उस साध्य का अनुमान "केवल व्यतिरेकी"
अनुमान कहा जाता है, जैसे गंध से पृथिवी
में पृथिवीतरभेद का अनुमान; तथा जिस साध्य
में सपक्ष, विपक्ष दोनों
होते हैं उस साध्य का अनुमान "अन्वयव्यतिरेकी" अनुमान कहा जाता है, जैस घूम से वह्रि का अनुमान।
उदयनाचार्य का आशय यह है कि
"अन्वयसहचार" = हेतु में साध्य का सहचार और "व्यतिरेकसहचार" =
साध्याभाव में हेत्वभाव का सहचार, इन दोनों सहचारों
से अन्वयव्याप्ति का ही ज्ञान होता है और उसी से अनुमिति होती है, अत: जिस अनुमिति के उत्पादक व्याप्तिज्ञान का उदय केवल अन्वयसहचार के ज्ञान से
होता है उस अनुमिति का कारण "केवलान्वयी" अनुमान, एवं जिस अनुमिति के उत्पादक व्याप्तिज्ञान का जन्म केवल व्यतिरेकसहचार से होता
है उस अनुमिति का कारण "केवल व्यतिरेकी" तथा जिस अनुमिति के उत्पादक व्याप्तिज्ञान
का उदय अन्वयसहचार और व्यतिरेक सहचार दोनों के ज्ञान से होता है उस अनुमिति का कारण
"अन्वयव्यतिरेकी" अनुमान कहा जाता है।
गंगेशोपाध्याय का अभिप्राय यह
है कि अनुमिति की उत्पत्ति केवल अन्वयव्याप्तिज्ञान से ही नहीं होती, किंतु व्यतिरेकव्याप्तिज्ञान से भी होती है, अत: जिस अनुमिति का जन्म केवल अन्वयव्याप्तिज्ञान से होता है उस अनुमिति का कारण
"केवलान्वयी", एवं जिस अनुमिति
का जन्म केवल व्यतिरेकव्याप्ति के ज्ञान से होता है उस अनुमिति का कारण "केवलव्यतिरेकी"
तथा जिस अनुमिति का जन्म अन्वय और व्यतिरेक दोनों व्याप्तियों के ज्ञान से होता है
उस अनुमिति का कारण "अन्वयव्यतिरेकी" अनुमान कहा जाता है।
हेतु
जिस पदार्थ में साध्य की व्याप्ति
और पक्षधर्मता के ज्ञान से अनुमिति की उत्पत्ति होती है उसे "हेतु" या लिंग
कहा जाता है। उसके दो भेद होते हैं - "सद्धेतु" और हेत्वाभास (दुष्ट हेतु)।
सद्धेतु में निम्नलिखित पाँच रूप अवश्य होने चाहिए :
1. पक्षसत्व = पक्ष
में रहना
2. सपक्षसत्तव =
साध्य के निश्चित आश्रय में रहना
3. विपक्षासत्व
= साध्याभाव के निश्चित आश्रय में न रहना
4. अबाधिकत्व = पक्ष
में साध्य का बाधित न होना।
5. असत्प्रतिपक्षितत्व
= पक्ष में साध्याभाव के साधनार्थ अन्य हेतु के ज्ञान या प्रयोग का न होना
यहाँ उक्त पाँचों के रूपों से
संपन्न होना केवल अन्वयव्यतिरेकी सद्धेतु के लिए ही आवश्यक है। केवलान्वयी सद्धेतु
के लिए "विपक्षसात्व" से अतिरिक्त चार रूपों से ही संपन्न होना अपेक्षित
होता है।
हेत्वाभास - जिसके ज्ञान से अनुमिति
उसके कारणभूत व्याप्तिज्ञान या पक्षधर्मताज्ञान का प्रतिबंध होता है उसे - हेतुगत दोष
अर्थ में - "हेत्वाभास" कहा जाता है और ये दोष जिन हेतुओं में होते हैं उन्हें-
"दुष्ट हेतु अर्थ में"- "हेत्वाभास" कहा जाता है। हेतुगत दोष के
पाँच भेद माने जाते हैं। निम्नलिखित तालिका से यह समझा जा सकता है कि वे भेद कौन हैं, उनके द्वारा क्या प्रतिबध्य होता है, तथा उनसे युक्त
दुष्ट हेतुओं के क्या नाम हैं?
क्रमांक हेतुदोष प्रतिबध्य दुष्ट हेतु
1 सव्यभिचार व्याप्तिज्ञान विरुद्ध (अनैकांतिक)
2 विरुद्ध व्याप्तिज्ञान विरुद्ध
3 सत्प्रतिपक्ष अनुमिति सत्यप्रतिपक्षित
(प्रकरणसम)
4 असिद्धि प्राय:
अनुमिति व्याप्ति असिद्ध ज्ञान, पक्षधर्मताज्ञान
5 बाध अनुमिति बाधित
(कालातीत)
अनुमिति के कारण - लिंग - हेतु
का त्रिविध परामर्श अनुमिति का कारण होता है। "पक्ष हेतु के संबंध का ज्ञान"
प्रथम लिंग परामर्श कहा जाता है- जैसे पर्वत में धूम के संबंध का "पर्वतो धूमवान्"
इस प्रकार का ज्ञान। "हेतु में साध्य की व्याप्ति का ज्ञान" द्वितीय लिंग
परामर्श कहा जाता है - जैसे धूम में, वह्रिव्याप्ति
का "धूमो वह्रि व्याप्य:" इस प्रकार का ज्ञान। पक्ष में साध्यव्याप्य हेतु
के संबंध का ज्ञान" तृतीय या चरम लिंग परामर्श कहा जाता है - जैसे पर्वत में वह्रिव्याप्य
धूम के संबंध का "पर्वतो वह्रिव्याप्य धूमवान्" इस प्रकार का ज्ञान।
पक्षता - "पक्षता"
भी अनुमिति का एक कारण है। पक्ष में साध्य का निश्चय रहने की दशा में अनुमिति की उत्पत्ति
को रोकने के लिए इसे अनुमिति का कारण माना जाता है। चिर प्राचीन नैयायिकों ने
"साध्यसंशय" को, उदयनाचार्य ने
"अनुमिति विषयक इच्छा" को, पक्षधर मिश्र
ने अनुमितिजनक इच्छा के रूप में "अनुमाता की अनुमिति - इच्छा" को तथा उसके
अभाव में "ईश्वर की इच्छा" को और गंगेशोपाध्याय ने "सिषाधयिषाविरहविशिष्टसिद्ध्यभाव"
को "पक्षता" माना है। गंगेशोपाध्याय का मंतव्य यह है कि जब पक्ष में साध्य
सिद्धि होती है और उस साध्य को अनुमान से जानने की इच्छा नहीं होती, उसी समय अनुमिति की उत्पत्ति नहीं होती है; किंतु साध्य को अनुमान से जानने की इच्छा होने पर पक्ष में साध्यनिश्चय की दशा
में भी अनुमिति की उत्पत्ति होती है। उसके लिए साध्यसंशय या अनुमितता की नियत अपेक्षा
नहीं होती।
प्रतिबंध का भाव - यह भी अनुमिति
का कारण है। इसे निम्नलिखित तालिका के अनुसार चार रूप में विभक्त किया जा सकता है।
1 आश्रयासिद्धि : पक्ष
में पक्षतावच्छेदक का अभाव; जैसे-आकाशपुष्प
को पक्ष बनाने पर पुरुपरूप पक्ष में आकाशीयत्व रूप पक्षतावच्छेदक का अभाव।
2 साध्याप्रसिद्धि : साध्य
में साध्यतावच्छेदक का अभाव; जैसे-आकाशपुष्प
को साध्य बनाने पर पुष्प रूपसाध्य में आकाशीयत्व रूप साध्यताकच्छेदक का अभाव।
3 सत्प्रतिपक्ष : पक्ष
में साध्याभावव्याप्य हेतु का संबंध; जैसे-शब्द में
नित्यत्व रूप साध्य के अभाव अनित्य के व्याप्य "जन्यत्व" का संबंध।
4 बाध : पक्ष
में साध्य का अभाव जैसे-शब्द रूप पक्ष में नित्यत्व रूप साध्य का अभाव।
इन चारों निश्चयों से अनुमिति
का प्रतिबंध होता है; अत: इन चारों
निश्चयों का अभाव "प्रतिबंधकाभाव" के रूप में अनुमिति का कारण होता है।
व्याप्ति - व्याप्ति ज्ञान को
द्वितीय लिंगपरामर्श के रूप में अनुमिति का कारण कहा गया है। इस व्याप्ति के निर्वचन
में नैयायिकों ने बड़ा पुरुषार्थ प्रदर्शित किया है; क्योंक यही अनुमान के प्रमाणत्व की आधारशिला है। व्याप्ति मुख्य रूप से दो प्रकार
की मानी गई है - "अन्वयव्याप्ति" और "व्यतिरेकव्याप्ति"। जिस व्याप्ति
के शरीर में - साध्य में हेतु व्यापकत्व - प्रवेश हो उसे सिद्धांतभत अन्वयव्याप्ति
कहा जाता है - जैसे "हेतुव्यापकसाध्यसामानाधिकरण्य"। और जिस व्याप्ति के
शरीर में - हेत्वभाव में साध्याभावव्यापकत्व- का प्रवेश हो उसे "व्यतिरेकव्याप्ति"
कहा जाता हैं - साध्याभावव्यापकाभाव प्रतियोगित्व"। अन्वयव्याप्ति का तात्पर्य
यह है कि हेतु का ऐसे साध्य के आश्रय में रहना, जिसका हेतु के किसी आश्रय में अभाव न हो। और व्यतिरेकव्याप्ति का तात्पर्य यह है
कि साध्याभाव के आश्रयों में हेत्वभाव का होना। जैसे - धूमकेतु किसी आश्रय में वह्रि
का अभाव न होने से वह्रि धूम का व्यापक है और उस वह्रि के आश्रय महानस आदि में धूम
रहता है; इसी प्रकार वह्न्यभाव
के आश्रयों में धूम का अभाव रहता है; इसलिए धूम में
वह्नि की "अन्वय" और "व्यतिरेक" दोनों व्याप्तियाँ रहती हैं।
व्याप्तिज्ञान के उपाय - व्यातिज्ञान
के तीन साधक माने जाते हैं- "व्यभिचार का अज्ञान," "हेतु में साध्यसहचार या साध्याभाव
में हेत्वभावसहचार" का ज्ञान और "तर्क"। इनमें प्रथम दो व्याप्तिज्ञान
के सार्वत्रिक साधन हैं; पर तर्क सर्वत्र
नहीं क्वचित् ही अपेक्षित होता है। जैसा कि विश्वनाथ ने अपने भाषा परिच्छेद (कारिकावली)
नामक ग्रंथ के गुण प्रकरण में कहा है :
व्यभिचारस्याग्रहोडथ सहचाराग्रहस्तथा।
हेतुर्व्याप्तिग्रहे तर्क: क्वचिच्छंकानिवत्र्तक:॥
137॥
तर्क - गौतम ने तर्क का लक्षण
कहा है :
अविज्ञाततत्तवेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्तवज्ञानार्थमूहस्तर्क:
(न्या. द. 1.1.42)
(जिस अर्थ का तत्व निर्णीत न हो उसके तत्त्वज्ञान के लिए युक्ति पूर्वक किए जानेवाले
"ऊह" ज्ञान का नाम है "तर्क") ।
परवर्ती नव्य नैयायिकों ने तर्क
का लक्षण इस प्रकार किया है : "व्याप्य के आहार्य आरोप से व्यापक का जो आहार्य
आरोप होता है" वह "तर्क" है। इस तर्क का विपरीत अनुमान में अर्थात्
व्यापक उ आपाद्य के अभाव से व्याप्य उ आपादक के अभाव के अनुमान में पर्यवसन्न होना
इसकी शुद्धता का निकष माना जाता है। जब कभी हेतु में साध्य व्यभिचार की शंका होने से
व्याप्तिज्ञान का प्रतिबंध होने लगता है, उस शंका को तर्क
द्वारा निरस्त कर व्याप्तिज्ञान का पथ प्रशस्त कर दिया जाता है। जैसे-पाकगृहगत धूम
में पागृहगत वह्रि के सहचार का ज्ञान होने पर भी जब पर्वतीय धूम में वह्रिव्यभिचार
की शंका होती है, उसे दूर करने
के लिए "तर्क" का सहारा लिया जाता है। जैसे - "किसी भी धूम में यदि
वह्रि का व्यभिचार होगा तो वह्रि धूम का कारण न हो सकेगा और यह संभव नहीं है कि वह्रि
को धूम का कारण न माना जाए; क्योंकि उस दशा
में धूम के संपादनार्थ वह्रि के ग्रहण में मनुष्य की नियत प्रवृत्ति का लोप हो जाएगा"।
इस तर्क के फलस्वरूप यह निष्कर्ष निकलता है कि "धूम वह्रि से उत्पन्न होता है
अत: उसमें वह्रिव्यभिचार का अभाव है" और इस निष्कर्ष के निष्पन्न होते ही पर्वतीय
धूम में वह्रिव्यभिचार की शंका निवृत्त हो जाने से धूम में वह्रिव्याप्ति का ज्ञान
निर्बाध रूप से संपन्न हो जाता है।
उपर्युक्त तर्कलक्षक सूत्र की
विश्वनाथवृत्ति में तर्क के आत्माश्रय, अन्योन्याश्रय, चक्रक, अनवस्था और इन
चारों से पृथक् बाधितार्थप्रसंग, ये पाँच भेद बतला
कर प्रत्येक का उदाहरण प्रदर्शित किया गया है।
उपाधि - जो पदार्थ के सब आश्रयों
में रहता हो पर हेतु के सब आश्रयों में न रहता हो, "उपाधि" कहा जाता है। उपाधि के तीन भेद होते हैं - शुद्ध साध्य का व्यापक, पक्षधर्मसहित साध्य का व्यापक तथा साधनयुक्त साध्य का व्यापक।
शुद्धसाध्य व्यापक उपाधि - जब
वह्रि से धूम का अनुमान किया जाता है, तब "आद्र्र
र्इंधन" उ गीली लकड़ी शुद्ध साध्य का व्यापक उपाधि होता है, क्योंकि आद्र्रं र्इंधन धूम रूप साध्य के सभी आश्रयों में रहता है पर अग्नितप्त
लोहगोलक में न रहने के कारण वह्रि रूप साधन के सब आश्रयों में नहीं रहता।
पक्षधर्मसहित साध्य की व्यापक
उपाधि - जब वायु में प्रत्यक्ष स्पर्श रूप हेतु से प्रत्यक्षत्व का अनुमान किया जाता
है तब "उद्भूत रूप" पक्षधर्मसहित साध्य का व्यापक उपाधि होता है, क्योंकि वायुस्वरूप पक्ष के वहिद्र्रव्यत्व रूप धर्म के साथ प्रत्यक्षत्व जिन प्रत्यक्षबाह्मद्रव्य
रूप आश्रयों में रहता है उन सभी में उद्भूत रूप रहता है, पर वायु में न रहने के कारण प्रत्यक्ष स्पर्श के सब आश्रयों में नहीं रहता।
साधनयुक्त साध्य की व्यापक उपाधि
- जब ध्वंस में "जन्यत्व" हेतु से "विनाशित्व" का अनुमान किया
जाता है तब "भावत्व" साधन युक्त साध्य का उपाधि होता है, क्योंकि जन्यत्व के साथ विनाशित्व जिन जन्य विनाशी पदार्थों में रहता है उन सभी
में भावत्व रहता है, पर ध्वंस में
न रहने के कारण जन्यत्व के सब आश्रयों में नहीं रहता।
उपाधि का ज्ञान व्याप्तिज्ञान
का सीधा विरोधी नहीं होता है। अर्थात् हेतु में साध्य व्यापक उपाधि के व्यभिचार से
उसमें साध्य व्यभिचार का अनुभव होता है और साध्य के उस आनुमानिक व्यभिचारज्ञान से व्याप्तिज्ञान
का साक्षात् प्रतिबंध होता है।
3.
उपमान
एक पदार्थ में अन्य पदार्थ के
सादृश्यज्ञान "उपमान" प्रमाण कहा जाता है। इससे अर्थविशेष में शब्द विशेष
के शक्ति संबंध का ज्ञान होता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है।
जब कोई अरण्यवासी मनुष्य किसी
ग्रामवासी मनुष्य को बताता है कि अरण्य में तुम्हारी गौ के सदृश गवय नाम का एक पशु
होता है, जब तुम अरण्य
में कभी जाना तो जिस पशु को अपनी गौ के सदृश देखना उसे गवय समझ लेना, तदनुसार जब ग्रामवासी कभी अरण्य जाता है और वहाँ अपनी गौ के सदृश किसी पशु को देखता
है उसे अरण्यवासी की बात का स्मरण होता है और उसे फलस्वरूप उस पशु में उसे गवय शब्द
के शक्तिसंबंध का निश्चय हो जाता है। इस प्रकार गवय में गोसादृश्य का दर्शन उपमानक्रमण, अरण्यवासी के द्वारा उपदिष्ट अर्थ का स्मरण उसका व्यापार तथा गवय में गवय शब्द
की शक्ति का निश्चय उपमिति नामक फल कहा जाता है। उदयनाचार्य ने यही बात अग्रिम कारिका
में कही है।
संबंधस्य परिच्छेद: संज्ञाया: संज्ञिना सह।
प्रत्यक्षादेरसाध्यत्वादुपमानफलं विदु:॥ (न्या. कु. 3 स्त. 10 का)
विश्वनाथ न्यायपंचानन की अग्रिम
कारिकाओं में यह विषय और भी विशद है :
ग्रामीणस्य प्रथमत: पश्यतो गवयादिकम्।
सादृश्यधीर्गवादीनां या स्यात् सा करणं स्मृतम्॥ 79॥
वाक्यार्थस्यातिदेशस्य स्मृतिव्र्यापार उच्यते।
गवयादिपदाना तु शक्तिधीरुपमा फलमा॥ 80॥ (भाषा परिच्छेद)
4.
शब्द (आप्तप्रमाण)
जिसमें पदार्थ के शक्ति या लक्षण
संबंध के ज्ञान से पदार्थ का स्मरण होकर पदार्थ का अनुभव होता है, उसे "शब्द प्रमाण" कहा जाता है। घट शब्द में घटपदार्थ के शक्ति संबंध
के ज्ञान से घट का स्मरण होकर घट का अनुभव और गंगा शब्द में गंगातीर के लक्षण संबंध
के ज्ञान से गंगातीर का स्मरण होकर गंगातीर का अनुभव होने से घट और गंगातीर रूप अर्थों
में घट और गंगा शब्द प्रमाण होते हैं।
अमुक शब्द अमुक अर्थ का बोधक
हो, अथवा अमुक अर्थ अमुक शब्द से
बोधित हो, इस प्रकार के
अनादि ईश्वर-संकेत को शक्ति कहा जाता है। जैसे राजा भगीरथ ने कपिल मुनि के शाप से दुग्ध
और अपने पूर्वज सार सुतों के उद्धारार्थ जिस जलप्रवाह को पृथ्वी पर प्रवर्तित किया, उस जलप्रवाह में गंगा का अनादि संकेत उस अर्थ में गंगा शब्द की शक्ति है।
जिस अर्थ में जिस शब्द का अनादि
संकेत न होकर आधुनिक संकेत होता है, उस अर्थ में उस
शब्द के आधुनिक संकेत को "परिभाषा" कहा जाता है। जैसे किसी नूतन वस्तु के
लिए उसके निर्माता द्वारा निश्चित किया गया कोई नाम।
शब्द के शक्यार्थसंबंध को
"लक्षणा" कहा जाता है। जैसे- शब्द के शक्यार्थ जलप्रवाह का तीर के साथ संयोग
संबंध।
जब किसी शब्द से शक्ति द्वारा
वक्ता के अभिमत अर्थ की प्रतीति नहीं हो पाती उस शब्द से लक्षण द्वारा उस अर्थ की प्रतीति
संपन्न हो जाती है।
न्यायशास्त्र के अनुसार अर्थ
के शक्ति और लक्षण संबंध संस्कृत भाषा के शुद्ध शब्दों में ही आश्रित होते हैं, अन्य भाषाओं के शब्द न्यायशास्त्र की दृष्टि में अपशब्द या अपभ्रंश माने जाते हैं।
अपभ्रंश शब्द से अर्थ की प्रतीति होती है जब उसमें अर्थ की परिभाषा की गई होती है या
उसमें अर्थ का शक्तिभ्रम होता है।
शक्ति और लक्षण से अतिरिक्त व्यंजना
नाम का कोई शब्दार्थ संबंध न्यायशास्त्र में मान्य नहीं है। जिस अर्थ के अवबोध के लिए
ऐसे तीसरे संबंध की आवश्यकता समझी जाती है, उसका बोध कहीं
लक्षणा से, कहीं ज्ञान लक्षण
सन्निकर्ष के द्वारा मन से और कहीं अनुमान से ही संपन्न हो जाता है।
शब्द प्रमाण के दो भेद होते हैं-
लौकिक और वैदिक। इनमें लौकिक शब्दावली को अन्य लौकिक प्रमाणों के संवाद से ही प्रमाण
माना जाता है, पर वैदिक शब्दावली
(वेद) को किसी लौकिक प्रमाण के संवाद के बिना भी प्रमाण माना जाता है। वेदमूलक स्मृतियों
को लौकिक कहा जाए या वैदिक, किंतु उनका प्रमाणत्व
वेद के संवाद पर निर्भर होता है।
शब्द प्रमाण होनेवाले अनुभव को
शब्दबोध कहा जाता है। वह पदज्ञान, पद-पदार्थ संबंध
ज्ञान, पदार्थ स्मरण
आकांक्षाज्ञान, आसक्ति या आसक्तिज्ञान, योग्यताज्ञान या अयोग्यता निश्चय का अभाव, तात्पर्यज्ञान या तात्पर्यज्ञापक प्रकरण इन सात कारणों से उत्पन्न होता है।
अनुभव और स्मरण - उक्त चार प्रमाणों
से होनेवाले ज्ञान अनुभव कहा जाता है। अनुभव के दो भेद होते हैं- उपेक्षात्मक और अनुपेक्षात्मक।
जो अनुभव अपने विषय का कोई संस्कार डाले बिना ही विलीन हो जाता है उसे "उपेक्षात्मक
अनुभव" तथा जो अनुभव अपने विषय का संस्कार उत्पन्न कर नष्ट होता है उसे
"अनुपेक्षात्मक" अनुभव कहा जाता है। कालांतर में इसी संस्कार के जागरण से
जो पूर्व अनुभव के समान ज्ञानांतर पैदा होता है उसे ही "स्मरण" कहा जाता
है। स्मरण की यथार्थता और अयथार्थता अनुभव की यथार्थता और अयथार्थता पर निर्भर होती
है। स्मरण को प्रमाण और भ्रम दोनों से भिन्न माना जाता है, क्योंकि उसे प्रमाण मानने पर उसके लिए अतिरिक्त प्रमाण तथा भ्रम मानने पर उसके
कारण रूप में अतिरिक्त दोष की कल्पना करनी होगी, जो उचित नहीं है।
प्रत्यभिज्ञा - धाराप्रवाही प्रत्यक्षज्ञान
को "प्रत्यभिज्ञा" कहा जाता है। संस्कार और इंद्रिय के सम्मिलित व्यापार
से उसकी उत्पत्ति होती है। पूर्वदृष्ट एवं दृश्यमान पदार्थ की एकता का ग्राहक होने
से वही स्थायी पदार्थ की सत्ता में प्रमाण होता है। जब मन संयुक्त इंद्रिय के सन्निकर्ष
से किसी विषय का प्रत्यक्ष होता है, जब तक उस विषय
के साथ इंद्रिय का तथा इंद्रिय के साथ मन का संयोग बना रहता है, प्रतिरक्षण उस विषय का नया नया प्रत्यक्षज्ञान होता रहता है। इस प्रत्यक्ष समूह
को ही धारावाही ज्ञान कहा जाता है। विषय के अबाधित होने से यह ज्ञान भी प्रमात्मक माना
जाता है।
अन्यथाख्याति - जन्य सविकल्पक
ज्ञान के दो भेद होते हैं- प्रमा और भ्रम। भ्रम का ही दूसरा नाम है "अन्यथाख्याति"।
इसके तीन भेद होते हैं- संशय विपर्यय और आरोप। एक ही आशय में परस्पर विरोधी दो पदार्थों
के एक ज्ञान को "संशय" कहा जाता है, जैसे- "शब्द: नित्यो न वा" (शब्द नित्य है या अनित्य)। किसी वस्तु में
अन्य वस्तु के धर्म का निश्चय "विपर्यय" कहा जाता है, जैसे सूर्य के प्रकाश में चमकती सीपी में चांदीपन का ज्ञान। विरोधी ज्ञान के रहते
हुए ज्ञाता की इच्छा से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान "आरोप" या "आहार्य"
कहा जाता है, जैसे रांगा को
चाँदी बताकर किसी गँवार के हाथ उसे बेचनेवाले ठग को रांगे में चाँदीपन के अभाव का ज्ञान
होते हुए भी उसमें इच्छापूर्वक चांदीपन का ज्ञान। इन अन्य व्याख्यातियों की उपपत्ति
करने के लिए ही न्यायशास्त्र में "ज्ञानलक्षण" अलौकिक सन्निकर्ष की कल्पना
की गई है।
स्वतस्त्व, परतस्त्त्व- ज्ञान के प्रमा और भ्रम दो भेद बताए गए हैं। उनकी उत्पत्ति तथा प्रमात्व
या भ्रमत्व रूप से उनकी ज्ञप्ति के बारे में भिन्न भिन्न दर्शनों के भिन्न भिन्न मत
हैं, किंतु न्यायशास्त्र में यह बात
मानी गई है कि प्रमा की उत्पत्ति स्वत: अर्थात् ज्ञान सामान्य के कारण मात्र से न होकर
गुणात्मक कारण की सहायता से होती है और भ्रम की उत्पत्ति स्वत: न होकर दोषात्मक कारण
की सहायता से होती है। इसी प्रकार ज्ञान के प्रमात्व एवं भ्रमत्व का ज्ञान भी स्वत:
अर्थात् ज्ञान के स्वरूपग्राहक कारण मात्र से न होकर अन्य कारण के सन्निधान से होता
है, जैसे प्रमात्व का ज्ञान
"सफल प्रवृत्तिहेतुक अनुमान" और भ्रमत्व का ज्ञान "विफलप्रवृत्तिहेतुक
अनुमान" से होता है। जिस ज्ञान से होनेवाली प्रवृत्ति सफल अर्थात् ज्ञात विषय
की प्रापिका होती है, उसे प्रमा समझा
जाता है और जिस ज्ञान से होनेवाली प्रवृत्ति विफल अर्थात् ज्ञात विषय की प्रापिका नहीं
होती, उसे भ्रम कहा जाता है।
वाद, जल्प और वितंडा
न्यायशास्त्र के ज्ञातव्य विषयों
मे वाद, जल्प और वितंडा
का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इन तीनों को वात्स्यायन ने अपने न्यायभाष्य में "कथा"
शब्द से व्यवहृत किया है।
तिस्र: कथा भवंति वादो जल्पो
वितंडा चेति(न्यायभाष्य 1.2.1 सूत्र)
कथा का अर्थ है किसी विषय पर
विद्वानों का वह पारस्परिक विचार जो वाद, जल्प और वितंडा
के रूप में उपलब्ध होता है। तत्व निर्णय के उद्देश्य से किए जानेवाले विचार को
"वाद" एवं प्रतिद्वंद्वी पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से किए जानेवाले
विचार को "जल्प" तथा "वितंडा" कहा जाता है। वादात्मक विचार में
"छल" और "जाति" का प्रयोग तथा "अपसिद्धांत" "न्यून", अधिक" और "हेत्वाभास" से अतिरिक्त निग्रह स्थानों का उद्भावन वज्र्य
माना गया है। इस विचार में सभा, मध्यस्थ एवं राजा
या राजप्रतिनिधि की आवश्यकता नहीं होती। इसमें भाग लेनेवाले विद्वान् अविनीतवंचक, असूयावान् या दुराग्रही नहीं होते। शुद्ध न्याय से तत्वनिर्णय पर पहुँचना ही उसका
लक्ष्य होता है। इसमें विचारकों के बीच जयपराजय की कोई भावना नहीं होती।
जल्प और वितंडा का स्वभाव वाद
से पर्याप्त भिन्न है। इन विचारों में भाग लेने वाले विद्वानों का उद्देश्य तत्वनिर्णय
नहीं, अपितु जिस किसी प्रकार अपने प्रतिद्वंद्वी
को मूक बनाकर अपने आपको विजयी सिद्ध करना होता है। इसीलिए इन विचारों में छल और जाति
के प्रयोग तथा सभी प्रकार के निग्रह स्थानों के उद्भावना की काट रहती है, साथ ही विचार के निर्विघ्न संचालन के लिए सभा, मध्यस्थ और राजकीय नियंत्रण की आवश्यकता होती है।
जल्प और वितंडा के उद्देश्य में
ऐक्य होने पर भी उनकी प्रकृति में बहुत अंतर है। जैसे जल्प में वादी और प्रतिवादी दोनों
अपने अपने पक्ष का साधन और परपक्ष का खंडन करते हैं, पर वितंडा में केवल वादी ही अपने पक्ष के साधन का प्रयास करता है, प्रतिवादी वादी के पक्ष का खंडन करने में ही अपनी कृतार्थता मानकर अपने पक्ष की
स्थापना तथा उसके साधन के प्रयास से विरत रहता है।
तत्व निर्णय के लिए "वाद"
तथा निर्णीत तत्व की रक्षा के लिए "जल्प" और वितंडा की उपयोगिता मानी जाती
है।
छल, जाति और निग्रह स्थान[संपादित करें]
ये विषय भी न्यायशास्त्र के प्रमुख
विषयों में हैं। प्रतिवादी के छलपूर्वक आक्रमण से अपने पक्ष की रक्षा के लिए छल का
ज्ञान आवश्यक है। वादी के पक्ष का खंडन करने के लिए उसके वचन में उसके अनभिमत अर्थ
की कल्पना को "छल" कहा जाता है। (न्या. द. 1. 2. 10)
छल के तीन भेद होते हैं- वाक्छल, सामान्यच्छल और उपचारच्छल।
स्वयं "जाति" के प्रयोग
से बचने के लिए तथा प्रतिवादी द्वारा "जाति" का प्रयोग होने पर उसका असदुत्तरत्व
घोषित करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए "जाति" का ज्ञान आवश्यक है। व्याप्ति
के अभाव में केवल साधम्र्य या वैधर्म्य से वादी के पक्ष में दोष-प्रदर्शन करने का नाम
"जाति" है :
साधर्म्य वैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं
जाति (न्या.द. 1.2.18)
जाति के चौबीस
भेद हैं -
साधर्म्यसमा, वैधर्म्यसमा, उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वण्र्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा, प्राप्तिसमा, अप्राप्तिसम, प्रसंगसमा, प्रतिदृष्टांतसमा, अनुत्पत्तिसमा, संशयसमा, प्रकरणसमा, अहेतुसमा, अर्थापत्तिसमा, अविशेषसमा, उपलब्धिसमा, अनुपलब्धिसमा, नित्यसमा, अनित्यसमा और कार्यसमा।
अपने आपको निग्रहस्थान में पड़ने
से बचाने के लिए तथा प्रतिवादी के निग्रहस्थान में पहुँचने पर विग्रहस्थान का निर्देश
कर प्रतिवादी को निगृहीत करने की अर्हता प्राप्त करने के लिए निग्रहस्थान का ज्ञान
आवश्यक है। इसके बाईस भेद हैं- प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञांतर, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञासंन्यास, हेत्वंतर, अर्थांतर, निरर्थक, अविज्ञातार्थ, अपार्थक, अप्राप्तकाल, न्यून, अधिक, पुनरुक्त, अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षण, निरनुयोज्यानुयोग, अपसिद्धांत और
हेत्वाभास।
छल, जाति और निग्रहस्थान के उक्त भेदों के लक्षण और उदाहरण की जानकारी के लिए न्यायदर्शन
के प्रथम अध्याय के द्वितीय आह्रिक तथा पंचम अध्याय और उनपर वात्स्यायन के न्यायभाष्य
का अवलोकन करना चाहिए।
आत्मा - जो दव्य चैतन्य
(ज्ञान) आश्रय होता है, उसे आत्मा कहा
जाता है। उसके दो भेद हैं- जीवात्मा और परमात्मा।
परमात्मा- परमात्मा का
ही नाम ईश्वर है। वह एक और व्यापक है। ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न
उसके विशेष गुण हैं और वे सभी नित्य तिथा सर्वविषयक हैं। ईश्वर ही जीवों के पूर्वार्जित
शुभ, अशुभ कर्मों के अनुसार जगत् की
रचना करता है। सृष्टि के आरंभ में जीवों के हितार्थ वेदों का निर्माण करता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र
इन चार वर्णों तथा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास इन चार आश्रमों की व्यवस्था कर मनुष्यों को वर्णाश्रम धर्म
की तथा अन्य प्रकार के विविध लोकव्यवहार की शिक्षा प्रदान करता है। वही जगत् का स्रष्टा
होने से ब्रह्मा, पालक होने से
विष्णु तथा संहर्ता होने से रुद्र नाम से व्यवहृत होता है। वह अनुमान और शास्त्र से
गम्य है। कदाचित् उसका प्रत्यक्ष भी होता है, पर वह केवल सिद्ध
योगी को ही।
जीवात्मा- जीवात्मा की
संख्या अनंत है। प्रत्येक जीव व्यापक तथा ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न आदि विशेष
गुणों का आश्रय और उन गुणों के साथ मन द्वारा प्रत्यक्ष वेद्य है। प्रत्येक जीव शुभाशुभ
कर्मों की पुण्य पापरूप वासना तथा विविध प्रकार के अनुभवों की वासना द्वारा अनादि काल
से बद्ध होता है। देव, दानव, यक्ष, गंधर्व, मनुष्य, पशु, पक्षी, साँप, बिच्छू, कीड़े, मकोड़े, लता, वनस्पति आदि विविध चर-अचर योनियों में उसका जन्म होता रहता है। उक्त बंधन तथा तन्मूलक
दु:खयंत्रणा से उसे छुटकारा नहीं मिलता जब तब उसे परमात्मा औैर स्वात्मा का तत्वसाक्षात्कार
नहीं हो जाता।
मोक्ष - न्यायशास्त्र
में इक्कीस प्रकार के दु:ख माने गए हैं।
घ्राण, रसना, चक्षु, त्वक्, श्रोत्र और मन ये छ: इंद्रियाँ; गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द और रागद्वेषमोहात्मक
दोष ये छ: विषय; विषयेन्द्रियों के संपर्क से होने वाले छ: विषयानुभव, शरीर सुख और दु:ख- इनमें अंतिम "दु:ख" स्वभावत: द्वेष्य होने के कारण
मुख्य दु:ख है, किंतु सुख मुख्य दु:ख से अनुबिद्ध होने के कारण तथा अन्य उन्नीस मुख्य दु:ख के
जनक होने के कारण गौण दु:ख हैं- इन इक्कीस प्रकार के दु:खों से सर्वदा के लिए पूर्ण
रूप से छुटकारा पाने का ही नाम है "मोक्ष" है।
मोक्षसाधन - सद्धर्म के
अनुष्ठान से "चित्त का शोधन" "पदार्थों का तत्व ज्ञान" तथा
"आत्मा के वास्तविक स्वरूप का प्रत्यक्ष बोध" ये तीन मोक्ष के साधन हैं।
नित्य, नैमित्तिक और
निष्काम कर्म के श्रद्धा एवं नियमपूर्वक चिर अनुष्ठान से जब मनुष्य अपने चित्त का शोधन
कर लेता है, संसार के विषयों
से उसे विरक्ति हो जाती है, जिसके फलस्वरूप
उसे जगत् के पदार्थों विशेषत: परमात्मा और स्वात्मा की तत्वजिज्ञासा होती है। उस जिज्ञासा
से प्रेरित होकर वह सद्गुरु के चरणों में पहुँच, उससे शास्र का अध्ययन कर प्रमाण,. प्रमेय आदि सोलह
पदार्थों का - जिनका न्याय - वैशेषिक के मर्मज्ञ विद्वानों ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव इन सात पदार्थों में अंतर्भाव कर लिया है - तत्वज्ञान अर्जित करता
है। अनंतर मनन, निदिध्यासन एवं
आदरपूर्वक दीर्घकालव्यापी अविच्छिन्न अभ्यास से परमात्मा का अलौकिक मानस तथा विशेषगुणमुक्त
आत्मा का लौकिक मानस तत्व साक्षात्कार प्राप्त कर न्याय दर्शन के द्वितीय सूत्र में
कहे गए क्रम से पहले जीवनमुक्ति प्राप्त करता है, अर्थात् जीवन काल में ही सब बंधनों से मुक्त हो जाता है और उसके बाद प्रारब्ध कर्मों
का भोग द्वारा अवसान हो जाने पर वर्तमान शरीर से संबंध तोड़कर विदेहमुक्ति को प्राप्त
करता है। पुन: कभी किसी भी रूप में उसका जन्म नहीं होता और वह ईश्वर के समान नितांत
निर्दु:ख हो अपने निसर्गसिद्ध शुद्ध शाश्वत रूप में सदा के लिए प्रतिष्ठित हो जाता
है।
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