अद्वैत वेदांत
अद्वैत वेदान्त वेदान्त की एक शाखा। अहं ब्रह्मास्मि अद्वैत
वेदांत यह भारत में प्रतिपादित दर्शन की कई विचारधाराओँ में से एक है, जिसके आदि शंकराचार्य पुरस्कर्ता थे।
भारत में परब्रह्म के स्वरूप के बारे में कई विचारधाराएं
हैँ। जिसमें
Ø
अद्वैत या केवलाद्वैत,
Ø
द्वैत (मध्वाचार्य द्वारा प्रतिपादित तथा उनके अनुयायियों द्वारा
उपबृंहित द्वैतवाद रामानुज के विशिष्ट द्वैतवाद से काफी मिलता-जुलता
है। मध्व बिना संकोच द्वैत का प्रतिपादन करते हैं। अद्वैत वेदांत को मध्व "मायावादी
दानव' कहते हैं। इनके अनुसार जगत्प्रवाह पाँच भेदों से समन्वित है-
(१) जीव और ईश्वर में, (२) जीव और जीव में, (३) जीव और जड़ में, (४) ईश्वर और जड़ में तथा (५) जड़ और जड़ में भेद स्वाभाविक है।)
Ø
विशिष्टाद्वैत (आचार्य रामानुज का प्रतिपादित किया हुआ यह दार्शनिक
मत है। इसके अनुसार यद्यपि जगत् और जीवात्मा दोनों कार्यतः ब्रह्म से भिन्न हैं फिर
भी वे ब्रह्म से ही उदभूत हैं और ब्रह्म से उसका उसी प्रकार का संबंध है जैसा कि किरणों
का सूर्य से है, अतः ब्रह्म एक होने पर भी अनेक हैं।)
Ø
शुद्धाद्वैत (वल्लभाचार्य (1479-1531 ई) द्वारा प्रतिपादित दर्शन
है वे पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक हैं। यह एक वैष्णव सम्प्रदाय है जो श्रीकृष्ण की पूजा
अर्चना करता है। शुद्धाद्वैत दर्शन अद्वैतवाद से भिन्न है।)
Ø द्वैताद्वैत (द्वैताद्वैत दर्शन के प्रणेता
निम्बार्क हैं जो वैष्णव दार्शनिक थे। उनका जन्म वर्तमान आन्ध्र प्रदेश क्षेत्र में
हुआ था। उनके दर्शन को भेदाभेदवाद (भेद+अभेद वाद) भी कहते हैं।)
जैसी कई सैद्धांतिक विचारधाराएं हैं।
जिस आचार्य ने जिस रूप में ब्रह्म को जाना उसका वर्णन
किया। इतनी विचारधाराएं होने पर भी सभी यह मानते है कि भगवान ही इस सृष्टि का नियंता
है।
अद्वैत / शांकराद्वैत या केवलाद्वैत
अद्वैत विचारधारा के संस्थापक शंकराचार्य हैं, जिसे शांकराद्वैत या केवलाद्वैत भी कहा जाता है। शंकराचार्य मानते हैँ कि संसार
में ब्रह्म ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है (ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या)। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म
तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि"
ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' (यह सब ब्रह्म है), तत्वमसि (तत् त्वम् असि), तू (जीव) वह (ब्रह्म) है जैसे महावाक्य ब्रह्म की अद्वैतता की ही पुष्टि करते
हैं।
स्थापना
'अद्वैतवाद' विचारधारा की नीव गौड़पादाचार्य ने 215 कारीकायों (श्लोकों) से की
थी। इनके शिष्य गोविन्दाचार्य हुए और उनके शिष्य दक्षिण भारत में जन्मे स्वामी शंकराचार्य
हुए, जिन्होंने इन कारीकायों का भाष्य रचा था। यही विचार 'अद्वैतवाद' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। स्वामी शंकराचार्य अत्यंत प्रखर
बुद्धि के अद्वितीय विद्वान् थे, जिन्होंने भारत में फैल रहे
नास्तिक बौद्ध और जैन मत को शास्त्रार्थ में परास्त कर वैदिक धर्म की रक्षा की। उनके
प्रचार से भारत में नास्तिक मत तो समाप्त हो गया, पर 'मायावाद' अर्थात 'अद्वैतवाद' की स्थापना हो गयी।
गौड़पाद द्वारा व्याख्या
गौड़पाद सातवीं शताब्दी से पूर्व, शायद पहली पाँच शताब्दियों के कालखंड में कभी हुए थे। कहा जाता है कि उन्होंने
बौद्ध महायान के शून्यता दर्शन को अपना आधार बनाया था। उन्होंने तर्क दिया कि 'द्वैत' है ही नहीं; मस्तिष्क जागृत अवस्था या स्वप्न
में माया में ही विचरण करता है; और सिर्फ 'अद्वैत' ही परम सत्य है। माया की अज्ञानता के कारण यह सत्य छिपा हुआ
है। किसी वस्तु का स्वयं या किसी अन्य वस्तु से किसी वस्तु का अस्तित्व में आना है
ही नहीं। अंतत: कोई वैयक्तिक स्व या जीव नहीं है, केवल आत्मन या परमात्मा है, जिसमें जीव अस्थायी रूप से अंकित हो जाता है, बिल्कुल उसी तरह जैसे पूर्णाकाश
का एक अंश किसी पात्र में भर जाता है और पात्र के टूटने पर वह वैयक्तिक आकाश फिर से
पूर्णाकाश का अंश हो हाता है।
शंकराचार्य का तर्क
मध्यकालीन दार्शनिक 'शंकर' या शंकराचार्य (लगभग 700-750) ने गौड़पाद के सिद्धांतों के आधार पर मुख्यत: वेदांत सूत्रों
पर अपनी टीका 'शारीरिक-मीमांसा-भाष्य' में इस मत का विकास किया। शंकर
ने तर्क दिया कि उपनिषद ब्रह्म (परम तत्त्व) की प्रकृति की शिक्षा देते है और सिर्फ
अद्वैत ब्रह्म ही परम सत्य है। शंकराचार्य के कई अनुयायियों ने उनकें कार्यों को जारी
रखा और विस्तार प्रदान किया, जिनमें नौवीं शताब्दी के दार्शनिक
वाचस्पति मिश्र उल्लेखनीय हैं। अद्वैत साहित्य बेहद विस्तृत है और हिन्दू विचारधारा
में यह प्रमुख भूमिका अदा करता है। स्वामी शंकराचार्य ब्रह्मा के दो रूप मानते हैं, एक अविद्या उपाधि सहित हैं, जो जीव कहलाता हैं और दूसरा
सब प्रकार की उपाधियों से रहित शुद्ध ब्रह्मा है। अविद्या की अवस्था में ही उपास्य, उपासक आदि सब व्यवहार हैं और जब जीव अविद्या से रहित होकर 'अहम् ब्रह्मास्मि' अर्थात 'में ब्रह्मा हूँ', इस अवस्था को पहुँच जाता हैं तो जीव का जीवपन नष्ट हो जाता है।
माया का स्वरूप
अद्वैतमत के अनुसार माया के सम्बन्ध से ही ब्रह्मा जीव
कहलाता है। यह मायारूप उपाधि अनादिकाल से ही ब्रह्मा को लगी हुई है और इस अविद्या के
कारण ही जीव, अपने आपको ब्रह्मा से भिन्न समझता है। स्वामी शंकराचार्य के
अनुसार माया को परमेश्वर की शक्ति, त्रिगुणात्मिका, अनादिरूपा, अविद्या का नाम दिया गया है। इसे अनिर्वचनीय माना गया है।
जगत मिथ्या
अद्वैतमत के अनुसार जगत् मिथ्या है। जिस प्रकार स्वप्न
जूठे होते हैं तथा अँधेरे में रस्सी को देखकर सांप का भ्रम होता है, उसी प्रकार इस भ्रान्ति, अविद्या, अज्ञान के कारण ही जीव, इस मिथ्या संसार को सत्य मान रहा है। वास्तव में न कोई संसार
की उत्पत्ति, न प्रलय, न कोई साधक, न कोई मुमुक्षु (मुक्ति) चाहने वाला है, केवल ब्रह्मा ही सत्य है और
कुछ नहीं। अद्वैतमत के अनुसार यह अंतरात्मा न कर्ता है, न भोक्ता है, न देखता है, न दिखाता है। यह निष्क्रिय है।
सूर्य के प्रतिबिम्ब की भांति, जीवों की क्रियाएं, बुद्धि पर चिदाभास से हो रही हैं।
माया की समीक्षा
अद्वैतमत के अनुसार जीव और ब्रह्मा की भिन्नता का कारण
माया है, जिसे अविद्या भी कहते हैं। जिस समय जीव से अविद्या दूर हो जाती
है, उस समय वह ब्रह्मा हो जाता है। हमारा प्रथम आक्षेप है की यदि
अविद्या ब्रह्मा का स्वाभाविक गुण है, तब तो अविद्या का नाश नहीं हो
सकता, क्यूंकि स्वाभाविक गुण सदा ही अपने आश्रित द्रव्य के आधार पर
स्थिर रहता है। यदि यह अविद्या नेमैतिक है तो किस निमित से ब्रह्मा का अविद्या से संपर्क
हुआ। यदि कोई और निमित माना जाये तो ब्रह्मा के साथ उस निमित को भी नित्य मानना पड़ेगा
और उसे नित्य मानने पर द्वैत सिद्ध होता है। फिर अद्वैतवाद नहीं रहता। दूसरे इस अविद्या
का नाश वेदादि शास्त्रों के ज्ञान द्वारा होता है तो फिर वह निरुपाधि ब्रह्मा वेद ज्ञान
को कैसे उत्पन्न करता है?
आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता
शिवावतार श्रीमज्जगदगुरु आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत
के प्रणेता थे। उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके
अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त
संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र
ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों की
समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्धमतों को शास्त्रार्थों
द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, श्रृंगेरी एवं द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना की।
वल्लभाचार्य अपने शुद्धाद्वैत दर्शन में ब्रह्म, जीव और जगत, तीनों को सत्य मानते हैं, जिसे वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, गीता तथा श्रीमद्भागवत द्वारा
उन्होंने सिद्ध किया है। अद्वैत सिद्धांत चराचर सृष्टि में भी व्याप्त है। जब पैर में
काँटा चुभता है तब आखोँ से पानी आता है और हाथ काँटा निकालनेके लिए जाता है। ये अद्वैत
का एक उत्तम उदाहरण है।
शंकराचार्य के विषय में कहा गया है-
अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित् षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्
अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो
गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्यतथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र
के ऊपर शांकरभाष्यकी रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य
के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में
सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन, कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म
उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि
से युक्त है। तत्त्वमसि तुम ही ब्रह्म हो; अहं ब्रह्मास्मि मै ही ब्रह्म
हूं; 'अयामात्मा ब्रह्म' यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन बृहदारण्यकोपनिषद् तथा छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार
ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्न शंकराचार्य जी ने किया है। ब्रह्म को जगत्
के उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताए हैं। ब्रह्म सत् (त्रिकालाबाधित)
नित्य, चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है। ऐसा उन्होंने स्वीकार किया
है। जीवात्मा को भी सत् स्वरूप, चैतन्य स्वरूप तथा आनंद स्वरूप
स्वीकार किया है। जगत् के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि -
नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य
प्रतिनियत देशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसापि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभंगंयत:।
अर्थात् नाम एवं रूप से व्याकृत, अनेक कर्ता, अनेक भोक्ता से संयुक्त, जिसमें देश, काल, निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं। जिस जगत् की सृष्टि को मन
से भी कल्पना नहीं कर सकते, उस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय जिससे होता है, उसको ब्रह्म कहते है। सम्पूर्ण जगत् के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना, तथा तर्क आदि के द्वारा उसके सिद्ध कर देना, आदि शंकराचार्य की विशेषता रही
है। इस प्रकार शंकराचार्य के व्यक्तित्व तथा कृतित्वके मूल्यांकन से हम कह सकते है
कि राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का कार्य शंकराचार्य जी ने सर्वतोभावेनकिया था।
भारतीय संस्कृति के विस्तार में भी इनका अमूल्य योगदान रहा है।
शंकर के अद्वैत का दर्शन का सार-
1.
ब्रह्म ही एकमात्र सत्ता है। वह निर्गुण, निराकार, अनादि, निरंजन, अद्वितीय और सर्वव्यापक
है। माया से संयुक्त होकर वह
निर्गुण ब्रह्म ईश्वर बनता है और सृष्टि का कारण है। इस तरह ब्रह्म से अभिन्न है। ब्रह्म
और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमें जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है।
जीव और ब्रह्म एक ही हैं। अविद्या यानी माया से आवृत होने पर जीव अपने को ब्रह्म से
पृथक समझने लगता है। अविद्या के नष्ट होने के बाद वह ब्रह्म से अपनी अभिन्नता समझ लेता
है और मैं ब्रह्म ही हूँ अर्थात् मुझमें और ब्रह्म में कोई विभेद नहीं है, यह अनुभूति होने लगती। जगत्-
शंकर के मत में जगत् मिथ्या है। यहाँ मिथ्या शब्द का प्रयोग उन्होंने विशिष्ट अर्थ
में किया है। यह नामरूपात्मक जगत् इन्द्रियगोचर है, वह असत् नहीं।
उसकी सत्ता एक सीमा ही है। वह ब्रह्म तत्व से साक्षात्कार हो जाता है, तब इस जगत् की सत्ता बाधित हो जाती है अर्थात् उसकी यथार्थता का ज्ञान हो जाता
है। इसी कारण उसे मिथ्या कहा जाता है। माया- यह नामरूपात्मक दृश्यात्मक जगत् ब्रह्म
का विवर्त (विकार) है। तत्व में भ्रामक एवं असल परिवर्तन ही विवर्त है।
2.
जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है।
3.
जीव की मुक्ति ब्रह्म मे लीन हो जाने मे है।
प्रश्न :क्या है भेद अद्वैत ,द्वैत ,विशिष्ठ अद्वैत ,द्वैत -अद्वैत ,विशुद्ध अद्वैत और अचिन्त्य भेदाभेद वाद में ?
उत्तर
: हिंदुत्व दर्शन की यह विभिन्न धाराएं हैं जिनका प्रतिपादन अलग अलग आचार्यों ने किया
है। वेदान्त दर्शन जिसे ब्रह्म सूत्र भी कहा
गया है एक मशहूर वैदिक ग्रन्थ है। इसमें आध्यात्मिक गुरूओं ने अपने अपने सूत्रों की
विस्तार से व्याख्या लिखी है। इनमें आत्मा, परमात्मा और माया के परस्पर सम्बन्ध पर गुरुओं ने अपने अपने दर्शन और साधनाओं
का निचोड़ रखा है।
(१) अद्वैतवाद : के सूत्रधार जगदगुरु आदि शंकराचार्य रहें हैं जिन्हें भगवान् शंकर
का अवतार समझा गया है। इस मत के अनुसार केवल एक ही सत्ता है :ब्रह्म।
आत्मा ब्रह्म
से अलग नहीं है। ब्रह्म ही आत्मा है अपने मूल
रूप में लेकिन अज्ञान इन्हें दो बनाए रहता है। ज्ञान प्राप्त होने पर आत्मा अपने मूल
स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेती है। शंकराचार्य माया के अस्तित्व को नहीं मानते हैं।इनके
दर्शन में माया मिथ्या है इल्यूज़न है। अज्ञान के कारण ही हमें इसका बोध होता है। ज्ञान
प्राप्त करने पर इसका लोप हो जाता है।
क्योंकि
आप एक ही सत्ता ब्रह्म की बात करते हैं इसीलिए
इनके दर्शन को अ-द्वैत -वाद कहा गया है, (Non
-Dualism ). अहम ब्रह्मास्मि ,आत्मा सो परमात्मा इसी स्कूल का प्रतिपाद्य है।
(२) विशिष्ठ अद्वैतवाद : इसके प्रवर्तक जगदगुरु रामानुजाचार्य सत्ता तो एक ब्रह्म
की ही मानते हैं लेकिन जैसे वृक्ष की शाखाएं
,पत्ते और फल और फूल उसी के अलग अलग अंग हैं एक ही वृक्ष में विविधता है वैसे ही जीव (आत्मा) और माया, परमात्मा के विशेषण हैं। विशिष्ठ गुण हैं। इसीलिए इस दर्शन
को नाम दिया गया विशिष्ठ अ-द्वैत वाद यानी
Qualified
Non -Dualism.
माया यहाँ
मिथ्या नहीं है ब्रह्म भी सत्य है माया भी।
(३) द्वैत -अद्वैतवाद : जगद गुरु माधवाचार्य पांच किस्म के द्वैत की बात करते हैं।
(Five
Dualities ): यहाँ दो आत्माएं भी यकसां नहीं हैं एक मुक्त को
हो गई दूसरी अभी बंधन में ही पड़ी है। हर आत्मा का स्वभाव संस्कार
(शख्शियत )यहाँ अलग है।
(आ) माया (Material
energy ) और आत्मा में भी फर्क
है।माया जड़ है भौतिक ऊर्जा है आत्मा (जीव )चैतन्य है।
(इ) यहाँ माया और माया में भी फर्क है। हम कुछ चीज़ें खाद्य के रूप में ग्रहण करते
हैं कुछ को अखाद्य कह देते हैं। हैं दोनों भौतिक ऊर्जा के ही रूप फिर भी फर्क लिए हुए
हैं। वरना आदमी मिट्टी खा के पेट भर लेता।
(ई) माया और ब्रह्म के बीच भी द्वैधभाव (द्वैत) है। परमात्मा सर्व शक्तिमान रचता
(Creator)
है। माया उसकी शक्ति (Energy) है। परमात्मा सनातन सत्य है ज्ञान और आनंदका सागर है.माया को शक्ति परमात्मा से
प्राप्त होती है वह उसकी आश्रिता है।
(उ) आत्मा और परमात्मा भी अलग अलग हैं दो हैं एक नहीं आत्मा अलग परमात्मा अलग। आत्मा
माया से आबद्ध है। जबकी परमात्मा माया पर शासन करता है। माया उसकी चेरी है। आत्मा ज्ञान
स्वरूप तो है लेकिन उसका ज्ञान सीमित है। आत्मा तो सर्वज्ञ (सर्वज्ञाता )है। आत्मा
की चेतना (चेतन तत्व )एक ही काया में व्याप्त रहती है जबकि परमात्मा सर्वत्र सारी सृष्टि
में व्याप्त है।आत्मा आनंद ढूंढ रही है परमात्मा तो स्वयं आनंद है। आनंद परमात्मा का
ही एक नाम है। जहां आनंद है वहां परमात्मा है यह आनंद हद का नहीं बे -हद का है। इस
संसार का नहीं है उस संसार का है।इसीलिए गीता में भगवान् कहते हैं जहां आनंद है वहां
भी मैं ही हूँ।
इनके स्कूल
में द्वैत का बोलबाला है इसीलिए इस स्कूल को द्वैतवाद कहा गया है। (Dualism)
(ऊ) द्वैताद्वैतवाद (द्वैत -अद्वैतवाद): इसके प्रतिपादक जगदगुरु निम्बकाचार्य अ-द्वैत
और द्वैत दोनों को ही सही मानते हैं। समुन्द्र और उसकी बूँद अलग अलग भी हैं एक भी माने
जा सकते हैं। इसीप्रकार आत्मा परमात्मा का ही अंश है। अंश को अंशी से अलग भी कह सकते
हैं, यूं भी कह सकते हैं शक्ति ,शक्तिमान से अलग नहीं होती है। शक्तिमान की ही होती है।
(ए) विशुद्ध अद्वैतवाद (Pure Non-Dualism) : इसके प्रतिपादक जगद -गुरु वल्लभाचार्य माया के अस्तित्व को
मानते हैं शंकराचार्य की तरह नकारते नहीं हैं वहां तो माया इल्यूज़न है मिथ्या है।
वहां तो आत्मा का भी अलग अस्तित्व नहीं माना गया है। आत्मा सो परमात्मा कह दिया गया
है।
इस स्कूल
में दोनों का अस्तित्व है लेकिन परमात्मा के संग में वह एक ही हैं। यानी माया तो परमात्मा
की शक्ति है ही आत्मा का भी परमात्मा में विलय हो सकता है आत्मा परमात्मा को प्राप्त
हो सकती है। Vallabhacharya
says both -Maya and the soul exist, but they
are one with God .
(ऐ) अचिन्त्य भेदाभेद वाद :इसके प्रतिपादक
चैतन्य महाप्रभु कहते हैं जिस प्रकार गर्मी और प्रकाश आग (अग्नि) की ही शक्ति हैं ,ताप और प्रकाश ऊर्जा के दो अलग लग रूप हैं लेकिन हैं दोनों एक साथ हैं उसी एक अग्नि के रूप यानी उससे अलग भी उन्हें नहीं
कहा जा सकता है। इसीप्रकार आत्मा और माया परमात्मा की ही शक्ति से कार्य करतीं हैं।
दोनों हैं उसी की शक्तियां फिर भी उससे अलग
अलग भी हैं और उसके साथ साथ भी। इन्हें साधारण बुद्धि से इस रूप में पूरा ठीक से नहीं
समझा जा सकता। प्रज्ञा चक्षु चाहिए इन्हें बूझने के लिए। इसीलिए इस दर्शन को आपने नाम
दिया अचिन्त्य भेदाभेद वाद।
भारतीय
दर्शन के ये छ :प्रमुख स्कूल हैं। सभी वेदान्त के ज्ञाता ऐसा मानते हैं। आगे इनकी भी शाखाएं निकलीं हैं। मसलन अद्वैत वाद में - "Ajat vad, Vivart
vad, Avichchhed
vad, Drishti
Srishti vad, Srishti
Drishti vad " भी आगे चलके प्रसार पा गए हैं।
अलावा इसके भारतीय दर्शन के स्कूल हैं और भी लेकिन उतने विख्यात नहीं हैं।
इन दार्शनिक सिद्धान्तों को काल क्रम में chronological orderमें स्पष्ट करें तो बहुत उत्तम रहेगा
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