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वैशेषिक दर्शन
प्रवर्तक महिर्ष कणाद
वैशेषिक हिन्दुओं के षडदर्शनों में से एक दर्शन है। इसके मूल प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी)। यह दर्शन न्याय दर्शन से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र
भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है।
इस प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि
कणाद ने सूत्र रूप में लिखा। कणाद एक ऋषि थे।
मूल पदार्थ-परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति का वर्णन तो ब्रह्मसूत्र में है। ये तीन
पदार्थ ब्रह्य कहाते है। प्रकृति के परिणाम अर्थात् रूपान्तर दो प्रकार के हैं। महत्
अहंकार,
तन्मात्रा तो अव्यक्त है, इनका वर्णन सांख्य दर्शन में है। परिमण्डल पंच महाभूत तथा महाभूतों से बने चराचर
जगत् के सब पदार्थ व्यक्त पदार्थ कहलाते हैं। इनका वर्णन वैशेषिक दर्शन में है।
वैशेषिक
दर्शन के प्रवर्तक महिर्ष कणाद है। चूंकि ये दर्शन परिमण्डल, पंच महाभूत और भूतों से बने सब पदार्थों का वर्णन करता है, इसलिए वैशेषिक दर्शन विज्ञान-मूलक है।
वैशेषिक
दर्शन के प्रथम दो सूत्र है-
अथातो धर्म
व्याख्यास्याम:।।
अब हम धर्म
की व्याख्या करेंगे।
यतोSभ्युदयनि: श्रेयससिद्धि: स धर्म:।।
जिससे इहलौकिक
और पारलौकिक (नि:श्रेयस) सुख की सिध्दि होती है वह धर्म है।
कणाद के
वैशेषिक दर्शन की गौतम के न्याय-दर्शन से भिन्नता इस बात में है कि इसमें छब्बीस के
बजाय ७ ही तत्वों को विवेचन है। जिसमें विशेष पर अधिक बल दिया गया है।
ये तत्व
है- 1. द्रव्य, 2. गुण,
3. कर्म, 4. समन्वय, 5. सामान्य 6. विशेष और
7. अभाव।
वैसे वैशेषिक दर्शन बहुत कुछ न्याय दर्शन के समरूप है और इसका
लक्ष्य जीवन में सांसारिक वासनाओं को त्याग कर सुख प्राप्त करना और ईश्वर के गंभीर
ज्ञान-प्राप्ति के द्वारा अंतत: मोक्ष प्राप्त करना है। न्याय-दर्शन की तरह वैशेषिक
भी प्रश्नोत्तर के रूप में ही लिखा गया है।
जगत में पदार्थों की संख्या केवल छह है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समन्वय।
क्योंकि इस दर्शन में विशेष पदार्थ सूक्ष्मता से निरूपण किया गया है। इसलिए इसका नाम
वैशेषिक दर्शन है।
धर्म विशेष
पसूताद द्रव्यगुणकर्म सामान्य विशेष समवायानां
पदार्थांना
सधम्र्यवैधम्र्याभ्यिं तत्वज्ञानान्नि: श्रेयसम्।। वैशेषिक १|१|८
अर्थात् धर्म-विशेष से उत्पन्न हुए पदार्थ यथा, द्रव्य, गण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय-रूप पदार्थों के सम्मिलित और विभक्त धर्मो के
अघ्ययन-मनन और तत्वज्ञान से मोक्ष होता है। ये मोक्ष विश्व की अणुवीय प्रकृति तथा आत्मा
से उसकी भिन्नता के अनुभव पर निर्भर कराता है।
वैशेषिक दर्शन में पदार्थों का निरूपण निम्नलिखित रूप से हुआ
है:
जल: यह शीतल स्पर्श वाला पदार्थ है।
तेज: उष्ण स्पर्श वाला गुण है।
काल: सारे कार्यों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होता है।
आत्मा: इसकी पहचान चैतन्य-ज्ञान है।
मन: यह मनुष्य के अभ्यन्तर में सुख-दु:ख आदि के ज्ञान का साधन
है।
पंचभूत: पृथ्वी, जल,
तेज,
वायु और आकाश
पंच इन्द्रिय: घ्राण, रसना,
नेत्र, त्वचा और श्रोत्र
पंच-विषय: गंध,रस,रूप,स्पर्श तथा शब्द
बुध्दि: ये ज्ञान है और केवल आत्मा का गुण है।
नया ज्ञान अनुभव है और पिछला स्मरण ।
संख्या: संख्या, परिमाण,
पृथकता, संयोग और विभाग
ये
आदि गुण: सारे गुण द्रव्यों में रहते हैं।
अनुभव: यथार्थ (प्रमा, विद्या) एवं अयथार्थ,
(अविद्या)
स्मृति: पूर्व के अनुभव के संस्कारों से उत्पन्न ज्ञान
सुख: इष्ट विषय की प्राप्ति जिसका स्वभाव अनुकूल होता है। अतीत
के विषयों के स्मरण एवं भविष्य में उनके संकल्प से सुख होता है। सुख मनुष्य का परमोद्देश्य
होता है।
दु:ख: इष्ट के जाने या अनिष्ट के आने से होता है जिसकी प्रकृति
प्रतिकूल होती है।
इच्छा: किसी अप्राप्त वस्तु की प्रार्थना ही इच्छा है जो फल
या उपाय के हेतु होती है। धर्म, अधर्म या
अदृष्ठ: वेद-विहित कर्म जो कर्ता के हित और मोक्ष का साधन होता
है,
धर्म कहलाता है। अधर्म से अहित और दु:ख होता है जो प्रतिषिद्ध
कर्मो से उपजता है। अदृष्ट में धर्म और अधर्म दोनों सम्मिलित रहते हैं।
वैशेषिक दर्शन के मुख्य पदार्थ
१. द्रव्य: द्रव्य गिनती में ९ है
पृथिव्यापस्तेजो
वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।।(विशैषिक १।१।५) अर्थात् पृथ्वी, जल,
तेज,
वायु, आकाश, काल,
दिशा, आत्मा और मन।
२. गुण: गुणों की संख्या चौबीस मानी
गयी है जिनमें कुछ सामान्य ओर बाकी विशेष कहलाते हैं। जिन गुणो से द्रव्यों
में विखराव न हो उन्हें सामान्य(संख्या, वेग,
आदि) और जिनसे बिखराव (रूप,बुध्दि,
धर्म आदि) उन्हें विशेष गुण कहते है।
३. कर्म: किसी प्रयोजन को सिद्ध करने में कर्म की आवश्यकता होती
है,
इसलिए द्रव्य और गुण के साथ कर्म को भी मुख्य पदार्थ कहते हैं।
ऊपर फेंकना, नीचे फेंकना, सिकुड़ना, फैलाना तथा (अन्य प्रकार
के) गमन, जैसे भ्रमण, स्पंदन, रेचन, आदि, ये पाँच "कर्म" के भेद हैं। कर्म द्रव्य ही में
रहता है।
४. सामान्य: मनुष्यों में मनुष्यत्व, वृक्षों में वृक्षत्व जाति सामान्य है और ये बहुतों में होती
है। दिशा,
काल आदि में जाति नहीं होती क्योंकि ये अपने आप में अकेली है।
५. विशेष: द्रव्यों
के अंतिम विभाग में रहनेवाला तथा नित्य द्रव्यों में रहनेवाला "विशेष"
कहलाता है। नित्य द्रव्यों में परस्पर भेद करनेवाला एकमात्र यही पदार्थ है। यह
अनंत है। देश, काल की भिन्नता के बाद भी एक दूसरे के बीच
पदार्थ जो विलक्षणता का भेद होता है वह उस द्रव्य में एक विशेष की उपस्थिति से
होता है। उस पहचान या विलक्षण प्रतीति का एक निमित्त होता है-यथा गो में गोत्व
जाति से, शर्करा में मिठास से।
६. समभाव: जहाँ गुण व गुणी का संबंध इतना घना है कि उन्हें अलग
नहीं किया जा सकता।
७. अभाव: इसे भी पदार्थ माना गया है। किसी भी वस्तु की उत्पत्ति
से पूर्व उसका अभाव अथवा किसी एक वस्तु में दूसरी वस्तु के गुणों का अभाव (ये घट नहीं, पट है) आदि इसके उदाहरण है।
वैशेषिक दर्शन के मुख्य ग्रंथ
·
कणादकृत वैशेषिकसूत्र - इसमें दस अध्याय हैं।
·
वैशेषिकसूत्र के दो भाष्यग्रन्थ हैं - रावणभाष्य तथा भारद्वाजवृत्ति। वर्तमान में दोनो अप्राप्य हैं।
·
पदार्थधर्मसंग्रह (प्रशस्तपाद, 4 वी सदी के पूर्व) वैशेषिक का प्रसिद्ध ग्रन्थ
है। यद्यपि इसे वैशेषिकसूत्र का भाष्य कहा जाता है किन्तु यह एक स्वतंत्र ग्रन्थ
है।
·
पदार्थधर्मसंग्रह की टीका "'व्योमवती'" (व्योमशिवाचार्य, 8 वीं सदी),
·
पदार्थधर्मसंग्रह की अन्य टीकाएँ हैं- न्यायकंदली (श्रीधराचार्य, 10 वीं सदी), किरणावली (उदयनाचार्य 10 वीं सदी), लीलावती (श्रीवत्स, ११वीं शदी)।
·
ग्यारहवीं शदी के आसपास रचित शिवादित्य की सप्तपदार्थी में न्याय तथा वैशेषिक का सम्मिश्रण है।
·
अन्य : कटंदी, वृत्ति-उपस्कर (शंकर मिश्र 15 वीं सदी), वृत्ति, भाष्य (चंद्रकांत 20 वीं सदी), विवृत्ति (जयनारायण 20 वीं सदी), कणाद-रहस्य, तार्किक-रक्षा आदि अनेक मौलिक तथा टीका ग्रंथ हैं।
न्याय एवं वैशेषिक में प्रमुख भेद
इन दोनों दर्शनों में जिन बातो में
"भेद" है, उनमें से कुछ भेदों का पुन: उल्लेख यहाँ किया
जाता है।
(1) न्यायदर्शन में प्रमाणों का विशेष विचार है। प्रमाणों ही के द्वारा
तत्वज्ञान होने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। साधारण लौकिक
दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर न्यायशास्त्र के द्वारा तत्वों का विचार किया जाता
है। न्यायमत में सोलह पदार्थ हैं और नौ प्रमेय हैं। वैशेषिक दर्शन में प्रमेयों का विशेष विचार है। इस शास्त्र के अनुसार
तत्वों का विचार करने में लौकिक दृष्टि से दूर भी शास्त्रकार जाते हैं। इनकी
दृष्टि सूक्ष्म जगत् के द्वार तक जाती है इसलिए इस शास्त्र में प्रमाण का विचार
गौण समझा जाता है। वैशेषिक मत में सात पदार्थ हैं और नौ द्रव्य हैं।
(2) प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द इन चार प्रमाणों को न्याय
दर्शन मानता है, किंतु वैशेषिक केवल प्रत्यक्ष और अनुमान इन्हीं दो प्रमाणों को
मानता है। इसके अनुसार शब्दप्रमाण अनुमान में अंतर्भूत
है। कुछ विद्वानों ने इसे स्वतंत्र प्रमाण भी माना है।
(3) न्यायदर्शन के अनुसार जितनी इंद्रियाँ हैं
उतने प्रकार के प्रत्यक्ष होते हैं, जैसे - चाक्षुष,
श्रावण, रासन, ध्राणज तथा स्पार्शना किंतु वैशेषिक के मत
में एकमात्र चाक्षुष प्रत्यक्ष ही माना जाता है।
(4) न्याय दर्शन के मत में समवाय का प्रत्यक्ष
होता है, किंतु वैशेषिक के अनुसार इसका ज्ञान अनुमान
से होता है।
(5) न्याय दर्शन के अनुसार संसार की सभी
कार्यवस्तु स्वभाव ही से छिद्रवाली होती हैं। वस्तु के उत्पन्न होते ही उन्हीं
छिद्रों के द्वारा उन समस्त वस्तुओं में भीतर और बाहर आग या तेज प्रवेश करता है
तथा परमाणु पर्यंत उन वस्तुओं को पकाता है। जिस समय तेज की कणाएँ उस वस्तु में
प्रवेश करती हैं, उस समय उस वस्तु का नाश नहीं होता। यह अंग्रेजी में 'केमिकल ऐक्शन' कहलाता है। जैसे - कुम्हार घड़ा बनाकर आवें
में रखकर जब उसमें आग लगाता है, तब घड़े के प्रत्येक छिद्र से आग की कणाएँ उस में प्रवेश
करती हैं और घड़े के बाहरी और भीतरी हिस्सों को पकाती हैं। घड़ा वैसे का वैसा ही
रहता है, अर्थात् घड़े के नाश हुए बिना ही उसमें पाक
हो जाता है। इसे ही न्याय शास्त्र में "पिठरपाक" कहते हैं। वैशेषिकों का
कहना है कि कार्य में जो गुण उत्पन्न होता है, उस पहले उस कार्य के समवायिकारण में उत्पन्न
होना चाहिए। इसलिए जब कच्चा घड़ा आग में पकने को दिया जाता है,
तब आग सबसे पहले उस घड़े के जितने परमाणु हैं,
उन सबको पकाती है और उसमें दूसरा रंग उत्पन्न
करती है। फिर क्रमश: वह घड़ा भी पक जाता है और उसका रंग भी बदल जाता है। इस
प्रक्रिया के अनुसार जब कुम्हार कच्चे घड़े को आग में पकने के लिए देता है,
तब तेज के जोर से उस घड़े का परमाणु पर्यंत
नाश हो जाता है और उसके परमाणु अलग अलग हो जाते हैं पश्चात् उनमें रूप बदल जाता है,
अर्थात् घड़ा नष्ट हो जाता है और परमाणु के
रूप में परिवर्तित हो जाता है तथा रंग बदल जाता है, फिर उस घड़े से लाभ उठानेवालों के अदृष्ट के
कारणवश सृष्टि के क्रम से फिर बनकर वह घड़ा तैयार हो जाता है। इस प्रकार उन पक्व
परमाणुओं से संसार के समस्त पदार्थ, भौतिक या अभौतिक तेज के कारण पकते रहते हैं।
इन वस्तुओं में जितने परिवर्तन होते हैं वे सब इसी पाकज प्रक्रिया (केमिकल ऐक्शन)
के कारण होते हैं। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह पाक केवल पृथिवी से बनी हुई
वस्तुओं में होता है। इसे वैशेषिक "पीलुवाक" कहते हैं।
(6) नैयायिक असिद्ध,
विरुद्ध, अनैकांतिक, प्रकरणसम तथा कालात्ययापदिष्ट - ये पाँच
हेत्वाभास मानते हैं, किंतु वैशेषिक विरुद्ध,
असिद्ध तथा संदिग्ध,
ये ही तीन हेत्वाभास मानते हैं।
(7) नैयायिकों के मत में पुण्य से उत्पन्न
"स्वप्न" सत्य और पाप से उत्पन्न स्वप्न असत्य होते हैं,
किंतु वैशेषिक के मत में सभी स्वप्न असत्य
हैं।
(8) नैयायिक लोग शिव के भक्त हैं और वैशेषिक महेश्वर या पशुपति के
भक्त हैं। आगम शास्त्र के अनुसार इन देवताओं में परस्पर भेद है।
(9) इनके अतिरिक्त कर्म की स्थिति में,
वेगाख्य संस्कार में,
सखंडोपाधि में, विभागज विभाग में,
द्वित्वसंख्या की उत्पत्ति में,
विभुओं के बीच अजसंयोग में,
आत्मा के स्वरूप में,
अर्थ शब्द के अभिप्राय में,
सुकुमारत्व और कर्कशत्व जाति के विचार में,
अनुमान संबंधों में,
स्मृति के स्वरूप में,
आर्ष ज्ञान में तथा पार्थिव शरीर के विभागों
में भी परस्पर इन दोनों शास्त्रों में मतभेद हैं।
इस प्रकार के दोनों शास्त्र कतिपय सिद्धांतों
में भिन्न-भिन्न मत रखते हुए भी परस्पर संबद्ध हैं। इनके अन्य सिद्धांत परस्पर
लागू होते हैं।
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