योग दर्शन
षड् आस्तिक दर्शनों में योगदर्शन का महत्वपूर्ण स्थान है।
कालांतर में योग की नाना शाखाएँ विकसित हुई जिन्होंने बड़े व्यापक रूप में अनेक
भारतीय पंथों,
संप्रदायों और साधनाओं
पर प्रभाव डाला।
"चित्तवृत्ति निरोध" को योग मानकर यम, नियम, आसन आदि योग का मूल सिद्धांत
उपस्थित किये गये हैं।
इस पर भी अनेक भाष्य लिखे गये हैं। आसन, प्राणायाम, समाधि आदि विवेचना और व्याख्या की
प्रेरणा लेकर बहुत से स्वतंत्र ग्रंथों की भी रचना हुई।
योग दर्शनकार पतंजलि ने आत्मा और जगत् के संबंध में सांख्य दर्शन के सिद्धांतों का ही प्रतिपादन
और समर्थन किया है। उन्होंने भी वही पचीस तत्व माने हैं, जो सांख्यकार ने माने हैं। इनमें विशेषता यह
है कि इन्होंने कपिल की अपेक्षा एक और छब्बीसवाँ
तत्व 'पुरुषविशेष' या ईश्वर भी माना है, जिससे सांख्य के 'अनीश्वरवाद' से ये बच गए हैं।
पतंजलि का योगदर्शन, समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य इन चार पादों
या भागों में विभक्त है। समाधिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के उद्देश्य और
लक्षण क्या हैं और उसका साधन किस प्रकार होता है। साधनपाद में क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का
विवेचन है। विभूतिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के अंग क्या हैं, उसका परिणाम क्या होता है और
उसके द्वारा अणिमा,
महिमा आदि सिद्धियों की
किस प्रकार प्राप्ति होती है। कैवल्यपाद में कैवल्य या मोक्ष का विवेचन किया गया है।
संक्षेप में योग दर्शन का मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच
प्रकार के क्लेश होते हैं,
और उसे कर्म के फलों के
अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है। पतंजलि ने इन सबसे बचने और मोक्ष
प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है और कहा है कि क्रमशः योग के अंगों का साधन
करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ईश्वर के
संबंध में पतंजलि का मत है कि वह नित्यमुक्त, एक,
अद्वितीय और तीनों कालों
से अतीत है और देवताओं तथा ऋषियों आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है। योगदर्शन
में संसार को दुःखमय और हेय माना गया है। पुरुष या जीवात्मा के मोक्ष के लिये वे
योग को ही एकमात्र उपाय मानते हैं।
पतंजलि ने चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, निरुद्ध और एकाग्र ये पाँच
प्रकार की वृत्तियाँ मानी है, जिनका नाम उन्होंने 'चित्तभूमि' रखा है। उन्होंने कहा है कि आरंभ की तीन चित्तभूमियों में
योग नहीं हो सकता,
केवल अंतिम दो में हो
सकता है। इन दो भूमियों में संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो प्रकार के योग हो
सकते हैं। जिस अवस्था में ध्येय का रूप प्रत्यक्ष रहता हो, उसे संप्रज्ञात कहते हैं। यह
योग पाँच प्रकार के क्लेशों का नाश करनेवाला है। असंप्रज्ञात उस अवस्था को कहते
हैं, जिसमें किसी प्रकार की वृत्ति
का उदय नहीं होता अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह जाता, संस्कारमात्र बच रहता है। यही
योग की चरम भूमि मानी जाती है और इसकी सिद्धि हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है।
योग साधन
के उपाय में यह बतलाया गया है कि पहले किसी स्थूल विषय का आधार लेकर, उसके उपरांत किसी सूक्ष्म
वस्तु को लेकर और अंत में सब विषयों का परित्याग करके चलना चाहिए और अपना चित्त
स्थिर करना चाहिए। चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय बतलाए गए हैं वह इस
प्रकार हैं:- अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि, विषयों से विरक्ति आदि। यह भी
कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्याम करते हैं, उनमें अनेक प्रकार को विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है जिन्हें 'विभूति' या 'सिद्धि' कहते हैं। यम, नियम, आसन,
प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के
अंग कहे गए हैं,
और योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों का साधन
आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है। इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत कई बातें हैं। कहा
गया है जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से
छूट जाता है,
अनेक प्रकार की शक्तियाँ
प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य (मुक्ति) का भागी बनता है। सृष्टितत्व आदि के संबंध में योग का भी
प्रायः वही मत है जो सांख्य का है, इससे सांख्य को 'ज्ञानयोग' और योग को 'कर्मयोग' भी कहते हैं।
पतंजलि के सूत्रों पर सबसे प्राचीन भाष्य वेदव्यास जी का है। उस पर वाचस्पति मिश्र का वार्तिक है। विज्ञानभिक्षु का 'योगसारसंग्रह'
भी योग का एक प्रामाणिक
ग्रंथ माना जाता है। योगसूत्रों पर भोजराज की भी एक वृत्ति है (भोजवृत्ति)। पीछे से योगशास्त्र में तंत्र का बहुत सा मेल मिला और 'कायव्यूह' का बहुत विस्तार किया गया, जिसके अनुसार शरीर के अंदर
अनेक प्रकार के चक्र आदि कल्पित किए गए। क्रियाओँ का भी अधिक विस्तार हुआ और हठयोग की एक अलग शाखा निकली; जिसमें नेति, धौति, वस्ति आदि षट्कर्म तथा नाड़ीशोधन आदि
का वर्णन किया गया। शिवसंहिता, हठयोगप्रदीपिका, घेरण्डसंहिता आदि हठयोग के ग्रंथ है। हठयोग
के बड़े भारी आचार्य मत्स्येंद्रनाथ (मछंदरनाथ) और उनके शिष्य गोरखनाथ हुए हैं।
अष्टांग योग -
योग के आठ अंग
महर्षि
पतञ्जलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' के रूप में
परिभाषित किया है। योगसूत्र में उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और
आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग
विस्तार से बताया है। अष्टांग, आठ अंगों वाले, योग को आठ
अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों
वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ
अंग हैं:
१. यम :
पांच
सामाजिक नैतिकता
(क) अहिंसा -
शब्दों से, विचारों से और
कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य -
विचारों
में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना
(ग) अस्तेय -
चोर-प्रवृति
का न होना
(घ) ब्रह्मचर्य -
दो अर्थ
हैं:
* चेतना को ब्रह्म
के ज्ञान में स्थिर करना
* सभी
इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह -
आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
२. नियम: पाँच व्यक्तिगत
नैतिकता
(क) शौच -
शरीर और
मन की शुद्धि
(ख) संतोष -
संतुष्ट
और प्रसन्न रहना
(ग) तप -
स्वयं से
अनुशासित रहना
(घ) स्वाध्याय -
आत्मचिंतन
करना
(च)
ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा
३. आसन: योगासनों द्वारा
शारीरिक नियंत्रण
४. प्राणायाम: श्वास-लेने
सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण
५. प्रत्याहार: इन्द्रियों को
अंतर्मुखी करना
६. धारणा: एकाग्रचित्त
होना
७. ध्यान: निरंतर ध्यान
८. समाधि: आत्मा से जुड़ना, शब्दों से परे
परम-चैतन्य की अवस्था
योग दर्शन
योग दर्शन के आदि आचार्य
हिरण्यगर्भ है। हिरण्यगर्भ – सूत्रों के आधार पर (जो इस समय लुप्त है)
पतञ्जलि मुनि ने योग दर्शन का
निर्माण किया।
योगदर्शन के चार पाद है और १९५
सूत्र है।
समाधिपाद में ५१ सूत्र है,
साधनपाद में ५५ सूत्र है,
विभूतिपाद में ५५ सूत्र है और
केवल्यपाद में ३४ सूत्र है।
१। समाधिपाद – इसमें
समाहितचित्त वाले सबसे उत्तम अधिकारियों के लिए योग का वर्णन किया गया है।
सारा समाधिपाद एक प्रकार से
निम्न तीन सूत्रों की विस्तृत व्याख्या है।
(१)
योग चित्त की वृत्तियों का रोकना है।
(२)
वृत्तियों का निरोध होने पर द्रष्टा के स्वरुप में अवस्थिति होती है।
(३)
स्वरूपावस्थिति से अतिरिक्त अवस्था में द्रष्टा वृत्ति के समान रूप वाला प्रतीत
होता है।
चित्त, बुद्धि, मन, अन्तःकरण लगभग
पर्यायवाचक समानार्थक शब्द है। जिनका भिन्न – भिन्न दर्शनकारों ने अपनी अपनी
परिभाषा में प्रयोग किया है।
मन की चञ्चलता प्रसिद्ध है। सृष्टि
के सारे कार्यों में मन की स्थिरता ही सफलता का कारण होती है। सृष्टि
के महान पुरुषों की अद्भुत शक्तियों में उनके मन की एकाग्रता का रहस्य छिपा हुआ
होता है।
योग के अन्तर्गत मन को दो
प्रकार से रोकना होता है – एक तो केवल एक विषय में लगातार
इस प्रकार लगाए रखना किदूसरा विचार न आने पावे, इसको एकाग्रता अथवा सम्प्रज्ञात समाधि कहते
है जिसके चार भेद है।
(१)
वितर्क – किसी स्थूल विषय में चित्तवृत्ति की एकाग्रता।
(२)
विचार – किसी सुक्ष्म विषय में चित्तवृत्ति की एकाग्रता।
(३)
आनन्द – अहंकार विषय में चित्तवृत्ति की एकाग्रता।
(४)
अस्मिता – अहंकार रहित अस्मिता विषय में चित्तवृत्ति की एकाग्रता।
इसकी सबसे
ऊँची अवस्था विवेक ख्याति है, जिसमे चित्त का आत्माध्यास छूट
जाता है और उसके द्वारा आत्मस्वरूप का उससे पृथक – रूप में साक्षात्कार होता है, किन्तु योग दर्शा में इसको
वास्तविक आत्मा स्थिति नहीं बतलाया गया है। यह भी चित्त की एक वृत्ति अथवा
मन का ही एक विषय है (एक उच्चत्तम सात्त्विक वृत्ति), किन्तु इसका निरन्तर अभ्यास
वास्तविक स्वरूपस्थिति में सहायक होता है। निरोध
अपने स्वरुप का सर्वथा नाश हो जाना नहीं है, किन्तु जड़ तत्त्व के अविकेकपूर्ण संयोग का चेतन तत्त्व से सर्वथा नाश हो जाना
है। इस संयोग के न रहने पर द्रष्टा की सुद्ध परमात्मा स्वरुप में अवस्थिति होती है।
२। साधनपाद – इसमें
विक्षिप्त चित्तवाले मध्यम अधिकारियों के लिए योग का साधन बतलाया गया है।
सर्वबन्धनों और दुःखों के मूल
कारण पांच क्लेश है – अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष
और अभिनिवेश।
क्लेशों से कर्म की वासनाएँ
उत्पन्न होती है।
कर्म – वासनाओं
से जन्म रूप वृक्ष उत्पन्न होता है।
उस वृक्ष में जाती, आयु
और भोग रुपी तीन प्रकार के फल लगते है।
इन तीन फलों से सुख – दुःख
रुपी दो प्रकार का स्वाद होता है।
जो पुण्य कर्म (हिंसा रहित
कूसरे के कल्याणार्थ) किये जाते है उनसे जाती, आयु और भोग में सुख मिलता है।
जो पाप कर्म (हिंसात्मक दूसरों
को दुःख पहुंचाने की लिए) किये जाते हैं उनसे जाती, आई और भोग में दुःख पहुँचता है।
किन्तु यह सुख
भी तत्त्ववेत्ता की दृष्टि में दुःखस्वरूप ही है ; क्योंकि
विषयों में परिणाम दुःख, ताप
दुःख और संस्कार दुःख मिला हुआ होता है ; और तीनों गुणों के सदा अस्थिर
रहने के कारण उनकी सुख – दुःख और मोह रुपी वृत्तियाँ भी बदलती रहती है।
इसलिए सुख के पीछे दुःख का
होना आवश्यक है।
दुःख के नितांत अभाव का उपाय
निर्मल अडोल विवेक ख्याति है।
विवेकख्याति की सात प्रकार की
सबसे ऊँची अवस्थावाली प्रज्ञा होती है।
(१)
जो कुछ जानना था जान लिया (दुःख का कारण) – अब कुछ जानने योग्य नहीं रहा। अर्थात
जितना गुणमय दृश्य है वह सब परिणाम, ताप और संस्कार दुःखों से दुःख
स्वरुप ही है। इसलिए ‘हेय’ है।
(२)
जो कुछ करना था दूर कर दिया (– अब कुछ दूर करने योग्य नहीं
रहा। अर्थात द्रष्टा और दृश्य का संयोग जो ‘ हेय हेतु ‘ है
वह दूर कर दिया।
(३)
जो कुछ साक्षात करना था कर लिया, अब
कुछ साक्षात करने योग्य नहीं रहा। अर्थात निरोध समाधि द्वारा ‘ हान
‘ को साक्षात कर लिया।
(४)
जो कुछ करना था कर लिया। अब कुछ करने योग्य नहीं रहा। अर्थात
अविप्लव विवेक – ख्याति सम्पादन कर लिया।
(५)
चित्त ने अपने भोग अपवर्ग दिलाने का अधिकार पूरा कर दिया, अब कोई अधिकार शेष नहीं रहा।
(६)
चित्त के गुण अपने भोग अपवर्ग का प्रयोजन सिद्ध करके अपने कारण में लीं हो रहे है।
(७)
गुणों से पर हो कर शुद्ध परमात्मा अवस्थिति हो रही है।
योग के आठ अंग –
निर्मल विवेक ख्याति जिसे ‘ हान’ का
उपाय बतलाया है उसकी उत्पत्ति का साधन अष्टांग योग है। अर्थात
योग के आठ अंगों के अनुष्ठान से – अशुद्धि के क्षय होने पर – ज्ञान
की दीप्ति – विवेक – ख्याति पर्यन्त बढ़ जाती है।
योग के आठ अंग – याम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान
और समाधि है।
साधनपाद में योग के पाँच
बहिरंग साधन यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार
बतलाये गए है।
विभूतिपाद में उसके अन्तरंग
धारणा, ध्यान, समाधि
का निरूपण करते है।
३। विभूतिपाद – धारणा, ध्यान
और समाधि – तीनो मिलकर संयम कहाते
है। इस संयम के विनियोग से नाना प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो सकती है। ये
सिद्धियां – श्रद्धालुओं के योग में श्रद्धा बढ़ाने में और विक्षिप्त
(असमाहित) चित्त वालों के चित्त को एकाग्र करने में सहायक होती है, किन्तु इन्समे आसक्ति नहीं
होनी चाहिए।
योगमार्ग पर चलने वाले के लिए
नाना प्रकार के प्रलोभन आते है। अभ्यासी को उनसे सावधान रहना
चाहिए, उसमे
फँसने से और घमंड से बचे रहना चाहिए। स्थान वालों के आदर भाव करने
पर लगाव और अभिमान नहीं करना चाहिए। चित्त और पुरुष के भेद जानने
वाला सारे भावों के अधिष्ठातृत्त्व और सर्वज्ञातृत्त्व को प्राप्त होता है। किन्तु
योगी को उनमे भी अनासक्त रह कर अपने असली ध्येय की ओर बढ़ना चाहिए। उसमे
भी वैराग्य होने पर, दोषों
का बीज क्षय होइन पर, कैवल्य
होता है।
४। कैवल्यपाद – इसमें
चित्त और चित्त के सम्बन्ध में जो जो शंकाएँ हो सकती है, उनका युक्ति पूर्वक निवारण किया
है।
चित्त की नौ अवस्थाएँ –
(१)
जाग्रत – अवस्था – सत्त्व गुण गौणरूप से दबा रहता
है। तम, सत्त्व
को वृत्ति के यथार्त रूप के दिखलाने से रोकता है। रज
प्रधान हो कर चित्त को इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों में उपरक्त करने में समर्थ
होता है।
(२)
स्वप्नावस्था – सत्त्व गुण, गौणतर रूप से दबा रहता है। तम, रज को इतना दबा लेता है किवह
चित्त को इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों में उपरक्त नहीं कर सकता है। किन्तु
रज की क्रिया सूक्ष्म रूप से होती रहती है, जिससे वह चित्त को – मन द्वारा – स्मृति के संस्कारों में – उपरक्त
करने में समर्थ रहता है।
(३)
सुषुप्ति अवस्था – सत्त्व गुण, गौणतम रूप से दब जाता है। तमोगुण, रजोगुण की स्वप्नावस्था वाली
क्रियाओं को भी रोक कर प्रधान रूप से चित्त पर फ़ैल जाता है। इसलिए
किसी विषय का किसी प्रकार भी ज्ञान नहीं रहता परन्तु किसी विषय के ज्ञान न होने की
प्रतीति होती रहती है, अर्थात
रज का नितांत आभाव नहीं होता, वह
कुछ अंश में बना ही रहता है।
(४)
प्रलयावस्था – प्रलय में चित्त के अवस्था सुषुप्ति जैसी होती है, केवल भेद इतना है कि – प्रलय
समष्टि चित्त कि सुषुप्ति है – जबकि यह सुषुप्ति – व्यष्टि
चित्त की इसमें जीव गाढ़ निद्रा जैसे अवस्था में रहता है।
(५)
समाधि प्रारम्भ अवस्था – तमोगुण गौणरूप से रहता है। रजो
गुण को चित्त को चलायमान करने की क्रिया निर्बल होती है। सत्त्व
गुण प्रधान हो कर चित्त को एकाग्र करने और वास्तु को यथार्त रूप को दिखलाने में
समर्थ होता है।
(६)
सम्प्रज्ञात समाधि (एकाग्रता) – तमोगुण गौणतर रूप में दबा रहता
है। सत्त्व गुण रजोगुण को दबा कर प्रधानरूप से अपना प्रकाश करता है, जिससे चित्त वास्तु के तदाकार
हो कर उसका यथार्त रूप दिखलाने में समर्थ होता है। स्थूल
शरीर में कार्य बंद हो कर सूक्ष्म शरीर में एकाग्र वृत्ति रहती है।
(७)
विवेकख्याति – सम्प्रज्ञात समाधि और असम्प्रज्ञात समाधी के बीच की अवस्था। तमो
गुण गौणतम रूप में नाम मात्र रहता है। सतत गुण का प्रकाश पूर्णतया
फ़ैल जाता है। रजोगुण केवल इतना रहता है कि जिससे, पुरुष को चित्त से भिन्न दिखलाने की क्रिया हो सके और तम इस वृत्ति को रोकने
मात्र रह जाता है।
(८)
असम्प्रज्ञात समाधि (स्वरूपवास्थि) – सत्त्व चित्त में बाहर से
तीनोंगुणों का वृत्ति रूप परिणाम होना बंद हो जाता है। चित्त
में केवल निरोध परिणाम अर्थात संस्कार शेष रहते है, जिनके दुर्बल होने पर उसे फिर व्युत्थान दशा में आना पड़ता है।
(९)
प्रतिप्रसव – चित्त को बनाने वाले गुणों की अपने कारणों में लीं होने की
अवस्था। चित्त में निरोध परिणाम अर्थात संस्कार भी निवृत्त हो जाते है और पुरुष शुद्ध
कैवल्य परमात्मा स्वरुप में अवस्थित हो जाता है।
इनको चित्त की क्षिप्त – विक्षिप्त
आदि पाँच भूमियों के विषय से पृथक समझना चाहिए।
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