(३)
सांख्य दर्शन
भारतीय दर्शन के छः प्रकारों में से सांख्य भी एक है जो प्राचीनकाल
में अत्यंत लोकप्रिय तथा प्रथित हुआ था। यह अद्वैत वेदान्त से सर्वथा विपरीत मान्यताएँ
रखने वाला दर्शन है। इसकी स्थापना करने वाले मूल व्यक्ति कपिल कहे जाते हैं। 'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ
है - 'संख्या सम्बंधी' या विश्लेषण। इसकी सबसे प्रमुख धारणा सृष्टि के प्रकृति-पुरुष से बनी होने की है, यहाँ प्रकृति (यानि पञ्चमहाभूतों से बनी) जड़ है और पुरुष (यानि
जीवात्मा) चेतन। योग शास्त्रों के ऊर्जा स्रोत (ईडा-पिङ्गला), शाक्तों के शिव-शक्ति के सिद्धांत इसके समानान्तर दीखते हैं।
भारतीय संस्कृति में किसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान
था। देश के उदात्त मस्तिष्क सांख्य की विचार पद्धति से सोचते थे। महाभारतकार ने यहाँ
तक कहा है कि ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किञ्चित् सांख्यागतं तच्च महन्महात्मन् (शांति
पर्व 301.109)। वस्तुत: महाभारत में दार्शनिक विचारों की जो पृष्ठभूमि है, उसमें सांख्यशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है। शान्ति पर्व के
कई स्थलों पर सांख्य दर्शन के विचारों का बड़े काव्यमय और रोचक ढंग से उल्लेख किया
गया है। सांख्य दर्शन का प्रभाव गीता में प्रतिपादित दार्शनिक पृष्ठभूमि पर पर्याप्त
रूप से विद्यमान है।
इसकी लोकप्रियता का कारण एक यह अवश्य रहा है कि इस दर्शन ने
जीवन में दिखाई पड़ने वाले वैषम्य का समाधान त्रिगुणात्मक प्रकृति की सर्वकारण रूप
में प्रतिष्ठा करके बड़े सुंदर ढंग से किया। सांख्याचार्यों के इस प्रकृति-कारण-वाद
का महान गुण यह है कि पृथक्-पृथक् धर्म वाले सत्, रजस् तथा तमस् तत्वों के आधार पर जगत् की विषमता का किया गया समाधान बड़ा बुद्धिगम्य
प्रतीत होता है। किसी लौकिक समस्या को ईश्वर का नियम न मानकर इन प्रकृतियों के तालमेल
बिगड़ने और जीवों के पुरुषार्थ न करने को कारण बताया गया है। यानि, सांख्य दर्शन की सबसे बड़ी महानता यह है कि इसमें सृष्टि की
उत्पत्ति भगवान के द्वारा नहीं मानी गयी है बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप
में समझा गया है और माना गया है कि सृष्टि अनेक अनेक अवस्थाओं (phases) से होकर गुजरने के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है।
कपिलाचार्य को कई अनीश्वरवादी मानते हैं पर भग्वदगीता और सत्यार्थप्रकाश जैसे ग्रंथों
में इस धारणा का निषेध किया गया है।
सांख्य के प्रमुख सिद्धांत[संपादित करें]
• सांख्य
दृश्यमान विश्व को प्रकृति-पुरुष मूलक मानता है। उसकी दृष्टि से केवल चेतन या केवल
अचेतन पदार्थ के आधार पर इस चिदविदात्मक जगत् की संतोषप्रद व्याख्या नहीं की जा सकती।
इसीलिए लौकायतिक आदि जड़वादी दर्शनों की भाँति सांख्य न केवल जड़ पदार्थ ही मानता है
और न अनेक वेदांत संप्रदायों की भाँति वह केवल चिन्मात्र ब्रह्म या आत्मा को ही जगत्
का मूल मानता है। अपितु जीवन या जगत् में प्राप्त होने वाले जड़ एवं चेतन, दोनों ही रूपों के मूल रूप से जड़ प्रकृति, एवं चिन्मात्र पुरुष इन दो तत्वों की सत्ता मानता है।
• जड़ प्रकृति
सत्व,
रजस एवं तमस् - इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम है। ये
गुण "बल च गुणवृत्तम्" न्याय के अनुसार प्रति क्षण परिगामी हैं। इस प्रकार
सांख्य के अनुसार सारा विश्व त्रिगुणात्मक प्रकृति का वास्तविक परिणाम है। शंकराचार्य
के वेदांत की भाँति भगवन्माय: का विवर्त, अर्थात् असत् कार्य अथवा मिथ्या विलास नहीं है। इस प्रकार प्रकृति को पुरुष की
ही भाँति अज और नित्य मानने तथा विश्व को प्रकृति का वास्तविक परिणाम सत् कार्य मानने
के कारण सांख्य सच्चे अर्थों में बाह्यथार्थवादी या वस्तुवादी दर्शन हैं। किंतु जड़
बाह्यथार्थवाद भोग्य होने के कारण किसी चेतन भोक्ता के अभाव में अपार्थक या अर्थशून्य
अथवा निष्प्रयोजन है,
अत: उसकी सार्थकता के लिए सांख्य चेतन पुरुष या आत्मा को भी
मानने के कारण अध्यात्मवादी दर्शन है।
• मूलत: दो
तत्व मानने पर भी सांख्य परिणामिनी प्रकृति के परिणामस्वरूप तेईस अवांतर तत्व भी मानता
है। तत्व का अर्थ है 'सत्य ज्ञान'। इसके अनुसार प्रकृति से महत् या बुद्धि, उससे अहंकार,
तामस, अहंकार से पंच-तन्मात्र
(शब्द,
स्पर्श, रूप, रस तथा गंध) एवं सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय (पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेंद्रिय तथा उभयात्मक मन) और अंत में पंच तन्मात्रों
से क्रमश: आकाश,
वायु, तेजस्, जल तथा पृथ्वी नामक पंच महाभूत, इस प्रकार तेईस तत्व क्रमश: उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार मुख्यामुख्य
भेद से सांख्य दर्शन 25 तत्व मानता है। जैसा पहले संकेत कर चुके हैं, प्राचीनतम सांख्य ईश्वर को 26वाँ तत्व मानता रहा होगा। इसके साक्ष्य महाभारत, भागवत इत्यादि प्राचीन साहित्य में प्राप्त होते हैं। यदि यह अनुमान यथार्थ हो
तो सांख्य को मूलत: ईश्वरवादी दर्शन मानना होगा। परंतु परवर्ती सांख्य ईश्वर को कोई
स्थान नहीं देता। इसी से परवर्ती साहित्य में वह निरीश्वरवादी दर्शन के रूप में ही
उल्लिखित मिलता है।
• सांख्य दर्शन के २५ तत्व
आत्मा
(पुरुष)
अंत:करण
(3)
: मन,
बुद्धि, अहंकार
ज्ञानेन्द्रियाँ
(5)
: नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कर्ण
कर्मेन्द्रियाँ
(5)
: पाद,
हस्त, उपस्थ, पायु, वाक्
तन्मात्रायें
(5)
: गन्ध, रस, रूप,
स्पर्श, शब्द
महाभूत
(5)
: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश
संख्य सृष्टि रचना की व्याख्या एवं प्रकृति और पुरूष की पृथक-पृथक
व्याख्या करता है। सांख्य सर्वाधिक पौराणिक दर्शन माना जाता है। भारतीय समाज पर इसका
इतना व्यापक प्रभाव हो चुका था कि महाभारत (श्रीमद्भगवद्गीता),विभिन्न पुराणों, उपनिषदों,
चरक संहिता और मनु संहिता में सांख्य के विशिष्ट उल्लेख मिलते
है। इसके पारंपरिक जन्मदाता कपिल मुनि थे। सांख्य दर्शन में छह अध्याय और ४५१ सूत्र
है।
प्रकृति से लेकर स्थुल-भूत पर्यन्त सारे तत्वों की संख्या की
गणना किये जाने से इसे सांख्य दर्शन कहते है।
सांख्य सांख्या द्योतक है। इस शास्त्र का नाम सांख्य दर्शन इसलिए
पड़ा कि इसमें २५ तत्व या सत्य-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। सांख्य दर्शन की
मान्यता है कि संसार की हर वास्तविक वस्तु का उद्गम पुरूष और प्रकृति से हुआ है। पुरूष
में स्वयं आत्मा का भाव है जबकि प्रकृति पदार्थ और सृजनात्मक शक्ति की जननी है। विश्व
की आत्मायें संख्यातीत है जिसमें चेतना तो है पर गुणों का अभाव है। वही प्रकृति मात्र
तीन गुणो के समन्वय से बनी है। इस त्रिगुण सिद्धान्त के अनुसार सत्व, राजस्व तथा तमस की उत्पत्ति होती है। प्रकृति की अविकसित अवस्था
में यह गुण निष्क्रिय होते है पर परमात्मा के तेज सृष्टि के उदय की प्रक्रिया प्रारम्भ
होते ही प्रकृति के तीन गुणो के बीच का समेकित संतुलन टूट जाता है। सांख्य के अनुसार
२४ मूल तत्व होते है जिसमें प्रकृति और पुरूष पच्चीसवां है। प्रकृति का स्वभाव अन्तर्वर्ती
और पुरूष का अर्थ व्यक्ति-आत्मा है। विश्व की आत्माएं संख्यातीत है। ये सभी आत्मायें
समान है और विकास की तटस्थ दर्शिकाएं हैं। आत्माए¡ किसी न किसी रूप में प्रकृति से संबंधित हो जाती है और उनकी मुक्ति इसी में होती
है कि प्रकृति से अपने विभेद का अनुभव करे। जब आत्माओं और गुणों के बीच की भिन्नता
का गहरा ज्ञान हो जाये तो इनसे मुक्ति मिलती है और मोक्ष संभव होता है।
प्रकृति मूल रूप में सत्व,रजस्,रजस् तमस की साम्यावस्था को कहते है। तीनो आवेश परस्पर एक दूसरे
को नि:शेष (neutralize)
कर रहे होते हैं। जैसे त्रिकंटी की तीन टांगे एक दूसरे को नि:शेष
कर रही होती है।
परमात्मा का तेज परमाणु (त्रित) की साम्यावस्था को भंग करता
है और असाम्यावस्था आरंभ होती है।रचना-कार्य में यह प्रथम परिवर्तन है।
इस अवस्था को महत् कहते है। यह प्रकृति का प्रथम परिणाम है।
मन और बुध्दि इसी महत् से बनते हैं। इसमें परमाणु की तीन शक्तिया बर्हिमुख होने से
आस-पास के परमाणुओ को आकर्षित करने लगती है। अब परमाणु के समूह बनने लगते है। तीन प्रकार
के समूह देखे जाते है। एक वे है जिनसे रजस् गुण शेष रह जाता है। यह तेजस अहंकार कहलाता
है। इसे वर्तमान वैज्ञानिक भाषा में इलेक्टोन कहते है।
दूसरा परमाणु-समूह वह है जिसमें सत्व गुण प्रधान होता है वह
वैकारिक अहंकार कहलाता है। इसे वर्तमान वैज्ञानिक प्रोटोन कहते है।
तीसरा परमाणु-समूह वह है जिसमें तमस् गुण प्रधान होता है इसे
वर्तमान विज्ञान की भाषा में न्यूटोन कहते है। यह भूतादि अहंकार है।
इन अहंकारों को वैदिक भाषा में आप: कहा जाता है। ये(अहंकार)
प्रकृति का दूसरा परिणाम है। तदनन्तर इन अहंकारों से पाँच तन्मात्राएँ (रूप, रस) रस,गंध, स्पर्श और शब्द) पाँच महाभूत बनते है अर्थात् तीनों अहंकार जब
एक समूह में आते है तो वे परिमण्डल कहाते है। और भूतादि अहंकार एक स्थान पर (न्यूयादि
संख्या में) एकत्रित हो जाते है तो भारी परमाणु-समूह बीच में हो जाते है और हल्के उनके
चारो ओर घूमने लगते है। इसे वर्तमान विज्ञान `ऐटम´
कहता है। दार्शनिक भाषा में इन्हें परिमण्डल कहते हैं। परिमण्डलों
के समूह पाँच प्रकार के हैं। इनको महाभूत कहते हैं।
१ पार्थिव
२ जलीय
३ वायवीय
४ आग्नेय
५ आकाशीय
संख्या का प्रथम सूत्र है।
अथ त्रिविधदुख: खात्यन्त: निवृत्तिरत्यन्त पुरूषार्थ:।। १ ।।
अर्थात् अब हम तीनों प्रकार के दु:खों-आधिभौतिक (शारीरिक), आधिदैविक एवं आध्यात्मिक से स्थायी एवं निर्मूल रूप से छुटकारा
पाने के लिए सर्वोकृष्ट प्रयत्न का इस ग्रन्थ में वर्णन कर रहे हैं।
सांख्य का उद्देश्य तीनो प्रकार के दु:खों की निवृत्ति करना
है। तीन दु:ख है।
आधिभैतिक- यह मनुष्य को होने वाली शारीरिक दु:ख है जैसे बीमारी, अपाहिज होना इत्यादि।
आधिदैविक- यह देवी प्रकोपों द्वारा होने वाले दु:ख है जैसे बाढ़, आंधी, तूफान, भूकंप इत्यादि के प्रकोप ।
आध्यात्मिक- यह दु:ख सीधे मनुष्य की आत्मा को होते हैं जैसे
कि कोई मनुष्य शारीरिक व दैविक दु:खों के होने पर भी दुखी होता है। उदाहरणार्थ-कोई
अपनी संतान अपना माता-पिता के बिछुड़ने पर दु:खी होता है अथवा कोई अपने समाज की अवस्था
को देखकर दु:खी होता है।
सांख्य का एक अन्य सूत्र है-
सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति: प्रकृतेर्महान,
महतोSहंकारोSहंकारात् पंचतन्मात्राण्युभयमिनिन्द्रियं
तन्मात्रेभ्य: स्थूल भूतानि पुरूष इति पंचविंशतिर्गण:।।
अर्थात् सत्व, रजस और तमस की साम्यावस्था को प्रकृतिकहते है। साम्यावस्था भंग होने पर बनते हैं:
महत् तीन अहंकार,
पाँच तन्मात्राएँ, १० इन्द्रियाँ और पाँच महाभूत। पच्चीसवां गण है पुरूष।
No comments:
Post a Comment